Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभूत नामपदोंका वर्णन करते हुए जयधवलाकारने इस ग्रन्थके दोनों नामोंका अन्तर्भाव गौण्यनामपदमें किया है । जो नाम गुणकी मुख्यतासे व्यवहार में आता है उसे गौण्यनामपद कहते हैं। दोनों नामों
. इस ग्रन्थमें पेज, दाष और कषायोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। इसलिये इसे " पेजदोषप्राभृत या कषायप्राभृत कहते हैं। अतः ये दोनों नाम सार्थक हैं। पेज रागको
- कहते हैं और दोषसे आशय द्वेषका है । राग और द्वेष दानों कषायके ही प्रकार हैं। सार्थकता कषायके बिना राग और द्वेष रह नहीं सकते हैं। कषाय शब्दसे राग और द्वेष दोनोंका ग्रहण हो जाता है। किन्तु रागसे अकेले रागका और द्वेषसे अकेले द्वेषका हो ग्रहण होता है। इसीलिये चूर्णिसूत्रकारने पेजदोषप्राभृत नामको अभिव्याहरणनिष्पन्न कहा है और कषायप्राभृत नामको नयनिष्पन्न कहा है। जिसका यह आशय है कि पेज्जदोषप्राभृत नाममें पेज और दोष दोनोंके वाचक शब्दोंको अलग अलग ग्रहण किया है, किसी एक शब्दसे दोनोंका ग्रहण नहीं किया गया; क्योंकि पेज शब्द पेज्ज अर्थको ही कहता है और दोष शब्द दोषरूप अर्थको ही कहता है। किन्तु कषायप्राभृत नाममें यह बात नहीं है। उसमें एक कषाय शब्दसे पेज्ज और दोष दोनोंका ग्रहण किया जाता है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयको दृष्टिसे पेज्ज भी कषाय है और राग भी कषाय है। अतः यह नाम नयनिष्पन्न है। सारांश यह है कि इस ग्रन्थमें राग और द्वषका विस्तृत वर्णन किया गया है और ये दोनों ही कषायरूप हैं। अतः दोनों धर्मोंका पृथक पृथक नामनिर्दश करके इस ग्रन्थका नाम पेजदाषप्राभृत रखा गया है। और दोनोंको एक कषाय शब्दसे ग्रहण करके इस ग्रन्थका नाम कषायप्राभृत रखा गया है । अतः ये दोनों ही नाम सार्थक हैं और दो भिन्न विवक्षाओंसे रखे गये हैं।
प्रकृत ग्रन्थकी रचना गाथासूत्रोंमें की गई है। ये गाथासूत्र बहुत ही संक्षिप्त हैं और उनमें प्रतिपाद्य विषयका सूचनमात्र कर दिया है। बहुतसी गाथाएँ तो मात्र प्रश्नात्मक ही हैं और उनमें
प्रतिपाद्य विषयके बारे में प्रश्नमात्र करके ही छोड़ दिया गया है। यथा-किस नयकी कषायप्राभूत अपेक्षा कौन कषाय पेज्जरूप है और कौन कषाय दोषरूप है ? यदि चूर्णिसूत्रकार इन
की गाथासूत्रों पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना न करते तो इन गाथासूत्रोंका रहस्य उन्हींमें छिपा रह रचनाशैली जाता। इन गाथासूत्रांके विस्तृत विवेचनोंको पढ़कर यह प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारने
गागरमें सागर भर दिया है। असल में ग्रन्थकारका उद्देश्य नष्ट होते हुए पेज्जदोस. पाहुडका उद्धार करना था। और पेज्जदोसपाहुडका प्रमाण बहुत विस्तृत था। श्री जयधवलाकारके लेखानुसार उसमें १६हजार मध्यम पद थे, जिनके अक्षरोंका प्रमाण दो कोडाकोड़ी, इकसठ लाख सत्तावन हजार दो सौ बानवे करोड़, बासठ लाख, आठ हजार होता है। इतने विस्तृत प्रन्थको केवल २३३ गाथाओंमें निबद्ध करना ग्रन्थकारकी अनुपम रचनाचातुरी और बहुज्ञताका सूचक है। शास्त्रकारोंने सूत्रका लक्षण करते हुए लिखा है- जिसमें अल्प अक्षर हों, जो असंदिग्ध हा, जिसमें प्रतिपाद्य विषयका सार भर दिया गया हो, जिसका विषय गूढ़ हो, जो निर्दोष सयुक्तिक और तथ्यभूत हो उसे सूत्र कहते हैं ।' सूत्रका यह लक्षण कषायप्राभृतके गाथासूत्रोंमें बहुत कुछ अंशमें पाया जाता है। संभवतः इसीसे ग्रन्थकारने प्रतिज्ञा करते हुए स्वयं ही अपनी गाथाओंको सुत्तगाहा कहा है और जयधवलाकारने उनकी गाथाओंके सूत्रात्मक होनेका समर्थन किया है। चूर्णिसूत्रकारने भी अपने चूर्णिसूत्रोंमें प्रायः उन्हें 'सुत्तगाहा' ही लिखा है। - इसप्रकार संक्षिप्त होनेसे यद्यपि कषायप्राभृतको सभी गाथाएं सूत्रात्मक हैं किन्तु कुछ
(१) कसायपा० पृ० ३६ । (२) कसायपा० पृ० १९७-१९९ । (३) गाथा २२ । (४) कसायपा० पृ० १५१ । (५) 'वोच्छामि सुत्तगाहा' गा० २ । (६) कसायपा० पृ० १५५ ।
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