Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभृत
अस्तु, जो कुछ हो, पर इससे इतना सुनिश्चित प्रतीत होता है कि भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समयमें कोई ऐसी घटना जरूर घटी थी, जिसने आगे आकर स्पष्ट संघभेदका रूप धारण कर लिया। भगवान महावीरका अचेलक निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय जम्बूस्वामी के बाद ही बिना किसी विशेष कारण के अचेलकताको सर्वथा छोड़ बैठे और उसकी कोई चर्चा भी न रहे यह मान्यता बुद्धिग्राह्य तो नहीं है । अतः भद्रबाहु के समय में संघभेद होनेकी जो कथाएँ दिगम्बर साहित्य में पाई जाती हैं और जिनका समर्थन शिलालेखोंसे होता है उनमें अर्वाचीनता तथा स्थानादिका मतभेद होने पर भी उनकी कथावस्तुको एकदम काल्पनिक नहीं कहा जा सकता । अस्तु,
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श्रुतकेवली भद्रबाहुके अवसानके साथ ही अन्तके चार पूर्व विच्छिन्न हो गये और केवल दस पूर्वका ज्ञान अवशिष्ट रहा। फिर कालक्रमसे विच्छिन्न होते होते वीरनिर्वाण से ६८३ वर्ष बीतने पर जब अंगों और पूर्वोके एक देशके ज्ञानका भी लोप होनेका प्रसंग उपस्थित हुआ, तब दूसरे अग्रायणीय पूर्वके चयनलब्धि नामक अधिकार के चतुर्थ पाहुड कर्मप्रकृति श्रादिसे षट्खण्डागमकी रचना की गई और ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वके दसवें वस्तु अधिकार के अन्तर्गत तीसरे पेज्जदोषप्राभृतसे कषायप्राभृतकी रचना की गई । और इस प्रकार लुप्तप्राय अंगज्ञानका कुछ अंश दिगम्बर परम्परामें सर्वप्रथम पुस्तकरूपमें निबद्ध हुआ जो आज भी अपने उसी रूप में सुरक्षित है । श्वेताम्बर परम्परा में जो ग्यारह अंगग्रन्थ आज उपलब्ध हैं, उन्हें वी० नि० सं० ६८० में ( वि० सं० ५१० ) देवद्धिंगणी क्षमाश्रमणने पुस्तकारूढ़ किया था । यह बात मार्के की है कि जो पूर्वज्ञान श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सर्वथा लुप्त हो गया उसीका एक अंश दिगम्बर सम्प्रदाय में सुरक्षित है । अतः हम जिस कषायप्राभृत ग्रन्थके एक भागके प्रस्तुत संस्करणको प्रथमवार पाठकों के करकमलोंमें अर्पित कर रहे हैं उसका द्वादशाङ्ग वाणी से साक्षात सम्बन्ध है और इसलिये वह अत्यन्त आदर और विनयसे ग्रहण करनेक योग्य है ।
कषायप्राभृतके इस प्रस्तुत संस्करण में तीन ग्रन्थ एक साथ चलते हैं - कषायप्राभृत मूल, उसकी चूणिवृत्ति और उनकी विस्तृत टीका जयधवला । प्रस्तुत प्रस्तावनाके भी तीन मूल विभाग हैं - एक ग्रन्थपरिचय, दूसरा ग्रन्थकारपरिचय और तीसरा विषयपरिचय | प्रथम विभाग में उक्त तीनों ग्रन्थोंका परिचय कराया गया है । दूसरे विभाग में उनके रचयिताओंका परिचय कराकर उनके समयका विचार किया गया है, तथा तीसरे विभाग में उनमें चर्चित विषयका परिचय कराया गया है ।
नाराज होकर स्थविरोंने कहा- संघकी प्रार्थनाका अनादर करनेसे तुम्हें क्या दण्ड मिलेगा इसका विचार करो । भद्रबाहुने कहा-मैं जानता हूँ कि संघ इस प्रकार वचन बोलनेवालेका बहिष्कार कर सकता है । स्थविर बोले- तुम संघकी प्रार्थनाका अनादर करते हो । ' इसलिए श्रमण संघ प्राजसे तुम्हारे साथ बारहों प्रकारका व्यवहार बंद करता है । आादि ।
(५) आगे जाकर हमनें इसलिए लिखा है कि दिगम्बर परम्परामें विक्रमराजाकी मृत्युके १३६ वें वर्षमे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति होने का उल्लेख मिलता है और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वीर नि० सं० ६०९ (वि० सं० १३९ ) में अष्टम निन्हव दिगम्बर परम्पराकी उत्पत्ति होनेका उल्लेख आवश्यक निर्युक्ति आदि ग्रन्थों में मौजूद हैं । दोनों उल्लेखोंमें केवल तीन वर्षका अन्तर है जो विशेष महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता । मुनि कल्याणविजयजीने अपनी पुस्तक श्रमण भगवान महावीरमें आवश्यक निर्युक्तिमें अष्टम विके उल्लेख होने का निषेध किया है, किन्तु उसकी गा० २३८ में अष्टम निन्हवके उत्पत्तिस्थानका तथा गा० २४० में उसके कालका स्पष्ट उल्लेख है । पता नहीं, मुनि जी उन्हें क्यों छिपा गये हैं ! शायद इसका कारण यह है कि श्वेताम्बरपरम्परा नियुक्तियोंका कर्ता श्रुतकेवली भद्रबाहुको मानती भाती है। और मुनिजी दिगम्बर सम्प्रदायका उद्भव विक्रमकी छठी शताब्दीमे सिद्ध करना चाहते हैं । यदि वे उनमें
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