Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन का पता लगाये। यह विश्व क्या है? सृष्टि क्या है? सृष्टि की प्रक्रिया क्या है? जड़ क्या है? चेतन क्या है? आदि विभिन्न प्रकार के सवाल मन में उठते हैं और जब व्यक्ति इन तमाम सवालों पर विचार करना प्रारम्भ करता है, वहीं से दर्शन का प्रारम्भ होता है।
. 'दर्शन' शब्द की निष्पत्ति ‘दृश' धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है- देखना। दर्शन का पारिभाषिक रूप है- 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्,' अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाये वह दर्शन है। यहाँ स्वाभाविक रूप से प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि किसके द्वारा देखा जाये और क्या देखा जाये? सामान्यतः हम आँखों से देखते हैं और रूप आदि को देखते हैं, किन्तु आँखों से रूप का ज्ञान होना दर्शन नहीं है। आँखों द्वारा होने वाले प्रत्यक्ष ज्ञान को चाक्षुष दर्शन कहते हैं जिसका सम्बन्ध बाह्य-दृष्टि से है। अत: देखना दर्शन का साधारण अर्थ है। भारतीय दर्शन में दर्शन शब्द विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है- 'तत्त्व के प्रकृत स्वरूप का अवलोकन करना दर्शन है। तत् के भाव को तत्त्व कहते हैं। तत् सर्वनाम है और सर्व ब्रह्म। चूँकि ब्रह्म को तत् के नाम से जानते हैं, अत: ब्रह्म के भाव को, उसके यथार्थ स्वरूप को तत्त्व कहते हैं।२७ तत्त्व का सम्यक्-ज्ञान ही दर्शन कहलाता है। बाहर की ओर न देखकर अन्दर की ओर देखना आत्मदर्शन है जिसे अन्तर्दृष्टि भी कहते हैं। आत्मदर्शन ही जैन दर्शन में सम्यक्-ज्ञान तथा बौद्ध दर्शन में सम्यक्-प्रज्ञा है। इस प्रकार दर्शन शब्द का प्रयोग तीन रूपों में देखने को मिलता है- चाक्षुष ज्ञान, साक्षात्कार और श्रद्धान्। दर्शन शब्द की व्याख्या करते हुए डॉ० उमेश मिश्र ने स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों दृष्टियों को स्वीकार करते हुए 'प्रत्यक्ष' अर्थात् आँख से देखने पर विशेष बल दिया है। उनका मानना है
.. 'कुछ लोगों का कहना है कि प्राकृतिक या बौद्धिक जगत के बहुत से तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म हैं। उन्हें चक्षु के द्वारा देखना असम्भव है। इसलिए 'दर्शन' शब्द का ज्ञान प्राप्त किया जाये'- यही अर्थ करना उचित है। प्रगतिवादी का कहना कुछ अंश में तो सत्य है, परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के पदार्थ दर्शनशास्त्र के विषय हैं और परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए दोनों का साक्षात्कार आवश्यक है। इसलिए चार्वाक, न्याय, वैशेषिक आदि स्थूल दृष्टिवाले दर्शनों में सूक्ष्म पदार्थों को तथा सांख्य, योग, वेदान्त आदि सूक्ष्म दृष्टिवाले दर्शनों में सूक्ष्म पदार्थों को देखने के लिए प्रत्येक मनुष्य में एक विशेष चक्षु होता है, जिसे साधारणतया 'प्रज्ञाचक्षु' या 'ज्ञानचक्षु' आदि कहा जाता है। गीता में भी विश्वरूप को देखने के लिए भगवान् ने अर्जुन को 'दिव्यचक्षु' ही दिया था। कठिन तपस्या करने पर या भगवान् के अनुग्रह से इसका उन्मीलन होता है और जब एक बार यह चक्षु खुल जाता है तो फिर उस व्यक्ति को इस चक्षु द्वारा
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