Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 12
________________ जैनविद्या 24 3 इससे जान पड़ता है कि आचार्य माणिक्यनन्दि आचार्य अकलंक के पश्चात् हुए हैं। आचार्य अकलंक का समय छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच का माना जाता है और आचार्य माणिक्यनन्दि का समय आठवीं शती सिद्ध हो चुका है। अतः आचार्य प्रभाचन्द्र नवीं-दशवीं शती के विद्वान् थे। आचार्य प्रभाचन्द्र का समय पण्डित कैलाशचन्दजी ने ईसवी सन् 950 से 1020 और पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने ईस्वी सन् 980 से 1065 तक होना माना है। आचार्य प्रभाचन्द्र के समय के विषय में और भी विवाद हैं किन्तु जो कुछ पण्डित कैलाशचन्द्रजी एवं पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के द्वारा सिद्ध किया गया है वह सर्वमान्य है। कर्तृत्व आचार्य प्रभाचन्द्र विचक्षण बुद्धि के धनी थे। चहुँमुखी ज्ञान के बल पर ही आपने अनेक विषयों में अपनी लेखनी चलाई। चारों अनुयोगों में आपकी कृतियाँ पाई जाती हैं, जैसे - प्रथमानुयोग में - महापुराण-टिप्पणी, गद्य कथाकोष । करणानुयोग में - तत्वार्थवृत्ति पद-विवरण, रत्नकरण्डश्रावकाचार-टीका। द्रव्यानुयोग में - समयसार-टीका, प्रवचनसार-टीका, लघु द्रव्यसंग्रह-वृत्ति, समाधितंत्र-टीका, आत्मानुशासन-टीका । न्याय के विषय में - प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र। व्याकरण में - शब्दाम्भोज भास्कर, शाकटायन न्यास। इन सब रचनाओं को देखने से जान पड़ता है कि आपने बहुमुखी ज्ञान प्राप्त किया था। इतने ग्रंथों की टीकायें तथा मौलिक ग्रंथों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है ये कई आचार्यों के शिष्य और सधर्मा थे। रचना परिचय 1. प्रमेयकमलमार्तण्ड - यह टीका-ग्रंथ है। यह ग्रंथ इनके गुरु आचार्य माणिक्यनन्दि द्वारा रचित 'परीक्षामुख-सूत्र' पर रची एक वृहत्काय टीका है। इसको टीका न कहकर मौलिक रचना ही कहना चाहिए। प्रमाण की कोटि में आनेवाले जितने ज्ञेय-पदार्थ हैं उनको कमलों की भाँति प्रकाशित करता है यह । ग्रंथ अथ से लेकर इति तक न्याय से भरा पड़ा है। पूर्व पक्ष में आनेवाले धुरंधर दार्शनिक अपने पक्ष का शालीनता से समाधान (न्याय की कसौटी से) पाकर निरुत्तर हो जाते हैं।

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