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जैनविद्या 24
शब्दाम्भोज भास्कर के तृतीय अध्याय के अन्त में पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है -
इति प्रभाचन्द्रविरचिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्रव्याकरणमहान्यासे तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥श्रीवर्धमानाय नमः॥
प्रभाचन्द्र ने अभयनन्दि-सम्मत प्राचीन सूत्रपाठ पर ही उक्त महान्यास बनाया है। इसके सम्बन्ध में डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य का मत ज्ञातव्य है -
_ "व्याकरण जैसे शुष्क, शब्द-विषयक इस ग्रन्थ में प्रभाचन्द्र की प्रसन्न लेखनी से प्रसूत दर्शन शास्त्र की क्वचित अर्थ-प्रधान चर्चा इस ग्रन्थ के गौरव को असाधारणतया बढ़ा रही है। इसमें विधि विचार, कारक-विचार, लिंगविचार जैसे अनूठे प्रकरण हैं जो इस ग्रन्थ को किसी भी दर्शन-ग्रन्थ की कोटि में रख सकते हैं। इसमें समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन तथा अन्य अनेक आचार्यों के पद्यों को प्रमाणरूप से उद्धृत किया है। पृ. 91 में 'विश्वदृश्वाऽस्यपुत्रो जनिता' प्रयोग का हृदयग्राही व्याख्यान किया है। इस तरह क्या भाषा, क्या विषय और क्या प्रसन्न शैली, हरएक दृष्टि से प्रभाचन्द्र का निर्मल और प्रौढ़ पांडित्य इस ग्रन्थ में उदात्त भाव से निहित है।"
4. तत्त्वार्थवृत्ति पद-विवरण - ब्राह्मणकुलोत्पन्न आचार्य पूज्यपाद ने 'तत्त्वार्थ सूत्र' पर तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) नामक सिद्धान्त और दर्शनपरक टीका लिखी। इस तत्त्वार्थवृत्ति में तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पद का निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थवृत्ति के पदपूरक या ग्रन्थ के रूप में 'तत्त्वार्थवृत्ति पद-विवरण' लिखा जिसमें तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) के अप्रकट-विषम पदों का विवरण या स्पष्टीकरण है। प्रभाचन्द्र ने वृत्ति के कथन को पुष्ट करने के लिए अनेक पूर्ववर्ती प्राचीन एवं समवर्ती ग्रन्थों के वाक्यों को उद्धृत किया है। इस टिप्पण में प्रभाचन्द्र ने 'तत्त्वार्थसूत्र' की रचना की प्रेरक कथानायक 'सिद्धय्य' का नाम ही दिया है, किन्तु कथा नहीं दी। 'तत्त्वार्थवृत्ति पद-विवरण' सर्वार्थसिद्धि के हार्द को समझने में उपयोगी और पूरक है। इस ग्रन्थ में अप्रकट पदों के विवरण के साथ ही अन्य अनेक सैद्धान्तिक गुत्थियों पर विद्वत्तापूर्ण प्रकाश डाला गया है जो आचार्य प्रभाचन्द्र को दार्शनिक के साथ ही उच्चकोटि का सिद्धान्त-मर्मज्ञ होना भी सिद्ध करता है। इसमें कषाय-पाहुड सहित पचास से भी अधिक आगमिक ग्रन्थों के उद्धरण हैं। कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जो उपलब्ध ग्रन्थों में अनुपलब्ध हैं। प्रत्येक अध्याय के टिप्पण अलग-अलग हैं जो तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र का निर्देश करके दिये गये हैं जिससे उसे खोजने में कठिनाई नहीं होती। प्रत्येक अध्याय के टिप्पण की समाप्ति पर अध्याय की समाप्ति-सूचक सन्धि-वाक्य दिया है, यथा - ‘इति प्रथमोध्यायः समाप्तः।'