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जैनविद्या 24
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अग्रहार ग्राम सेडिम के निवासी नारायण के भक्त थे। चौंसठ कलाओं के ज्ञाता ज्वालामालिनी देवी के भक्त तथा अभिचार होम के बल से कांचीपुर के फाटकों को तोड़नेवाले तीन सौ महाजनों ने सेडिम मंदिर बनवाकर तीर्थंकर शांतिनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी तथा मंदिर पर स्वर्ण कलशारोहण कराया था। मंदिर की मरम्मत तथा नैमित्तिक पूजा के लिए 24 पत्तर प्रमाण (माप विशेष) भूमि, एक बगीचा और एक कोल्हू दान दिया था, ये मद्धुपगण के सूर्य, समस्त शास्त्रों के पारगामी मंत्रवादी आदि विशेषणों से युक्त थे।
जिनपति मततत्व रुचिर्वय प्रमाण प्रवीण निश्चित मति, परहित चारित्र पात्रो प्रभाचंद्र यतिनाथः । ख्यातस्त्रविद्या पर नामा श्री रामचन्द्र मुनि तिलकः,
प्रिय शिष्यः त्रैविद्य प्रभेन्दु भट्टारको लोके ।।" इनके अतिरिक्त और कई चमत्कारी प्रभाचन्द्र हुए हैं जो किंवदंतियों के रूप में प्रसिद्ध हैं।
अब हम अपने लेख के नायक 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' आदि ग्रन्थों के रचयिता आचार्य 'प्रभाचन्द्र' के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की चर्चा करेंगे। इन प्रभाचन्द्र को जैन साहित्य के इतिहास में वही स्थान प्राप्त है जो समन्तभद्र स्वामी और अकलंकदेव को प्राप्त है। ये उच्च कोटि के उद्भट विद्वान् और मनीषी हैं। न्यायविद्या के विशेषज्ञ-मर्मज्ञ हैं और खण्डन-मण्डन में निष्णात हैं। तर्कशास्त्र की बारीकियों से ये भली-भाँति परिचित हैं। इनका समय मोटे रूप से ग्यारहवीं सदी का उत्तरार्द्ध तथा बारहवीं सदी का पूर्वार्द्ध आँका गया है। आदरणीय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री इन प्रभाचन्द्र का समय 950 से 1020 ई. तक मानते हैं, वहीं पण्डित महेन्द्रकुमारजी 'न्यायाचार्य' इनका समय 980 से 1065 ई. तक मानते हैं। जबकि डॉ. दरबारीलाल कोठिया ने 1043 ई. को इनका अन्तिम काल माना है। पाठको! 20वीं सदी के उद्भट विद्वानों ने अपने-अपने प्रमाणों से उपर्युक्त तिथियाँ निश्चित की हैं जो हम सबको मान्य हैं।
ये प्रभाचन्द्र मूलसंघ और नन्दिगण की आचार्य परम्परा के प्रतिभाशाली प्रमुख आचार्य थे। इससे अनुमान होता है कि ये दाक्षिणात्य थे। उन दिनों धारा नगरी विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ विद्वानों से अलंकृत थी। वहाँ के नरेश धाराधिपति भोजराजदेव धारा नगरी के शासक थे और विद्वानों का सम्मान और आदर किया करते थे, वे स्वयं 'लक्षंददों' के शब्दों से अलंकृत थे। कोई भी कारण हो ये प्रभाचन्द्र भी धारानगरी में आ गये थे।