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जैनविद्या 24
(iv) लोक बाधित और (v) स्व-वचन बाधित पक्षाभास । किसी पक्ष - विशेष में प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित साध्य को मानना या सिद्ध करना ' प्रत्यक्ष बाधित पक्षाभास' कहलाता है, जैसे - अग्नि उष्णतारहित है, क्योंकि वह द्रव्य है । किसी पक्ष - विशेष में अनुमान प्रमाण से बाधित साध्य को सिद्ध करना 'अनुमान बाधित पक्षाभास' कहलाता है, जैसे - शब्द अपरिणामी है, क्योंकि वह कृतक है। किसी पक्ष - - विशेष में आगम प्रमाण से बाधित साध्य को स्वीकार करना 'आगम बाधित पक्षाभास' कहलाता है, जैसे धर्म परलोक में दुःख देनेवाला है, क्योंकि वह पुरुष के आश्रित है । किसी पक्ष - विशेष में लोकबाधित साध्य को सिद्ध करना 'लोक बाधित पक्षाभास' हैं, जैसे मनुष्य के सिर का कपाल पवित्र है; क्योंकि वह प्राणी का अंग है । (लोक में नर - कपाल को अपवित्र माना गया है।) किसी पक्ष - विशेष में स्व-वचन से बाधित साध्य की सत्ता को स्वीकार करना ‘स्व-वचन बाधित पक्षाभास' कहलाता है, जैसे - मेरी माता बन्ध्या है।
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(3) सिद्ध पक्षाभास - किसी पक्ष - विशेष में पूर्व सिद्ध साध्य को स्वीकार करना या सिद्ध करना 'सिद्ध पक्षाभास' है, जैसे शब्द श्रावण है।° इस अनुमान में शब्द कान से सुना जाता है यह तो पहले से ही ज्ञात है अर्थात् सिद्ध है । अतः यह सिद्ध पक्षाभास है ।
1.3. अनुमान के अवयव
माणिक्यनन्दि के अनुसार 'वाद' (शास्त्रार्थ) में उपर्युक्त 'पक्ष' (प्रतिज्ञा) और 'हेतु' ये दो ही अवयव होते हैं, उदाहरण आदि नहीं, और 'शास्त्र' (शास्त्र के पठन-पाठनकाल) में आवश्यकता अनुसार तीन, चार और पाँच अवयव हो सकते हैं।" ध्यातव्य है, 'वाद' में व्युत्पन्न पुरुषों ( न्याय - शास्त्र में प्रवीण व्यक्ति) का ही अधिकार होता है। अव्युत्पन्न पुरुषों का नहीं तथा व्युत्पन्न - प्रयोग तथोपपत्ति या अन्यथानुपपत्ति के द्वारा किये जाने का प्रावधान है अर्थात् व्युत्पन्न पुरुषों के लिए अनुमान का प्रयोग प्रतिज्ञा के साथ तथोपपत्ति या अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु से किया जाता है, जैसे यह प्रदेश अग्निवाला है; क्योंकि अग्निवाला होने पर ही धूमवाला हो सकता है अथवा अग्नि के अभाव में धूमवाला नहीं हो सकता । 62 इस प्रकार जिस हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव / व्याप्ति निश्चित है ऐसे हेतु के प्रयोगमात्र से ही, उदाहरण आदि के बिना ही, व्युत्पन्न व्यक्ति व्याप्ति का निश्चय कर लेते हैं। 3 दूसरे, ज्ञातव्य है, किसी हेतु का स्व-साध्य के प्रति हेतुपना या हेतुत्व होने में अथवा हेतुत्व प्रदान करने में 'समर्थन' 64 ही उपयोगी है और वही हेतु का वास्तविक रूप है । वही साध्य की सिद्धि में उपयोगी है। इस सन्दर्भ में मणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में लिखा है -