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आप्त का स्वरूप
क्षुत्पिपासाजरातङ्क जन्मान्तकभयस्मयाः। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते।6।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र - जिसके भूख-प्यास-बुढ़ापा-रोग-जन्म-मृत्यु-भय-गर्व-राग-द्वेष-मोह-चिन्ताअरति-निद्रा-विस्मय-मद-स्वेद और खेद - ये अठारह दोष नहीं हैं वह आप्त/सच्चा देव कहा जाता है। विशेषार्थ - आप्त-अरहन्त भगवान् क्षुधा-तृषा आदि अठारह दोषों से रहित होते हैं इसलिए वीतराग कहलाते हैं। केवलज्ञान प्रकट होते ही औदारिक शरीर परमौदारिक शरीर के रूप में परिवर्तित हो जाता है। उसमें से त्रस तथा बादर निगोदिया जीव पृथक् हो जाते हैं। उस शरीर पर वृद्धावस्था का कोई प्रभाव नहीं रहता। असाता वेदनीय कर्म के उदीरणा-तीव्र उदय का अभाव होने से राग-द्वेष-मोह-भय आदि दोष नहीं होते। दर्शनावरण कर्म के क्षय हो जाने से निद्रा नहीं होती। यद्यपि भुज्यमान वर्तमान मनुष्य आयु का सद्भाव है तथापि आगामी आयु का बन्ध न होने से उन्हें जन्मधारण नहीं करना पड़ता। उनकी मृत्यु नहीं होती, निर्वाण/मोक्ष होता है। मृत्यु उसे कहते हैं जिसके बाद जन्म धारण करना पड़े और निर्वाण उसे कहते हैं जिसके होने पर फिर जन्म न धारण करना पड़े। अरिहन्त के क्षुधा-तृष्णा का अभाव होने से कवलाहार (ग्रास लेकर आहार करना) नहीं होता।
आगम
* आप्तवचनादि निबन्धमर्थज्ञानमागमः।3.95।
- परीक्षामुख - आप्त के वचन आदि के द्वारा होनेवाले अर्थ (पदार्थ) के ज्ञान को आगम कहते हैं।