Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ 110 जैनविद्या 24 परन्तु विज्ञानाद्वैतवादी का उक्त कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि यदि इस प्रकार से सब ज्ञानों को आत्मख्याति रूप ही माना जाएगा तो कोई भी ज्ञान भ्रान्त सिद्ध नहीं होगा, सब ज्ञान अभ्रान्त ही सिद्ध होंगे। तथा यदि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित चाँदी आदि पदार्थ आत्मरूप (ज्ञानरूप) ही हैं तो उनकी प्रतीति सुखादि की भाँति अन्तरंग अर्थ रूप से ही होनी चाहिए। बाह्य अर्थ रूप से नहीं होनी चाहिए, जबकि स्पष्ट ही उनकी प्रतीति बाह्य अर्थ रूप से होती है। वस्तुतः आत्मख्यातिवाद तभी समीचीन सिद्ध हो सकता है जब पहले विज्ञानाद्वैतवाद सिद्ध हो जो कथमपि नहीं होता। अतः विपर्ययज्ञान को आत्मख्याति-रूप मानना भी न्यायसंगत नहीं है। 5. अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद - ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि विपर्ययज्ञान अनिर्वचनीयार्थख्याति-रूप होता है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित अर्थ को सत् भी नहीं कहा जा सकता, असत् भी नहीं कहा जा सकता और उभय भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इन तीनों ही पक्षों में दोष प्राप्त होते हैं। यदि सत् माना जाए तो कोई भी ज्ञान भ्रान्त सिद्ध नहीं होगा, अभ्रान्त ही सिद्ध होंगे; यदि असत् माना जाए तो आकाशपुष्प-आदि भी ज्ञान का विषय होना चाहिए, जो कभी नहीं होता; और यदि उभय रूप माना जाए तो उक्त दोनों ही दोष उपस्थित होंगे। अतः विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थख्यातिरूप मानना चाहिए। परन्तु ब्रह्माद्वैतवादियों का उक्त कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित अर्थ कथमपि अनिर्वचनीय सिद्ध नहीं होता। यदि वह वास्तव में अनिर्वचनीय होता तो यह चाँदी है' अथवा 'यह रस्सी है' - इत्यादि रूप से कथन कैसे होता है? इससे सिद्ध होता है कि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित अर्थ अनिर्वचनीय नहीं है। दरअसल, विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थख्यातिरूप मानने के पीछे ब्रह्माद्वैतवादियों की भावना अनिर्वचनीय ब्रह्माद्वैत के प्रतिपादन व समर्थन की है, परन्तु वह ब्रह्माद्वैत किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, जो एक पृथक् विषय है और स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं लिखा जा सकता। इस प्रकार विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थख्यातिरूप मानना भी युक्तिसंगत नहीं है। 6. विवेकाख्यातिवाद या स्मृतिप्रमोषवाद - प्रभाकर (मीमांसक) कहते हैं कि विपर्ययज्ञान विवेकाख्याति या स्मृतिप्रमोष रूप होता है, क्योंकि उसमें दो ज्ञानों में विवेक (भेद) की अख्याति या पूर्वदृष्ट अर्थ की

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122