________________
108
जैनविद्या 24
विपर्ययज्ञान है। ख्याति का अर्थ होता है - प्रसिद्धि । ख्यातिवाद का मूलभूत विचारणीय विषय यही है कि इस विपर्ययज्ञान में किसकी प्रसिद्धि होती है? सत् की, असत् की, दोनों की अथवा किसी की नहीं? बस, इसी प्रश्न का उत्तर विभिन्न दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से पृथक्-पृथक् दिया है। फलस्वरूप इस विषय में अनेक वाद निर्मित हो गये हैं। यथा - अख्यातिवाद, असत्ख्यातिवाद, प्रसिद्धार्थख्यातिवाद, आत्मख्यातिवाद, अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद, विवेकाख्यातिवाद या स्मृतिप्रमोषवाद और विपरीतार्थख्यातिवाद। ‘ख्यातिवाद' के प्रकरण में आचार्य प्रभाचन्द्र ने इन सभी मतों की गम्भीर समीक्षा प्रस्तुत की है। यथा - 1. अख्यातिवाद - ___ चार्वाक कहते हैं कि विपर्ययज्ञान अख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें किसी की भी ख्याति (प्रसिद्धि) नहीं होती। उनके अनुसार विपर्ययज्ञान निरावलम्बन होता है, उसका कोई आलम्बन नहीं होता। अर्थात् जब हमें सीप में चाँदी अथवा मरीचिका में जल का ज्ञान होता है तब उस ज्ञान का विषय न तो सीप होता है और न ही चाँदी, अथवा न तो मरीचिका होती है और न ही जल। अतः विपर्ययज्ञान अख्यातिरूप होता है।
परन्तु चार्वाक का ऐसा मानना समीचीन नहीं है, क्योंकि यदि विपर्ययज्ञान में किसी भी पदार्थ की ख्याति नहीं होती तो उसका 'यह चाँदी है' अथवा 'यह मरीचिका है' अथवा 'यह रस्सी है' - इत्यादि रूप से विशेष कथन सम्भव नहीं होता, जो होता ही हैतथा विपर्ययज्ञान निरावलम्बन नहीं है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित होनेवाला पदार्थ उसका आलम्बन होता है। जैसे - जब सीप में चाँदी का विपर्ययज्ञान हो तब उसका आलम्बन चाँदी है और वहाँ उस चाँदी की स्पष्टतया ख्याति हो रही है।
अतः विपर्ययज्ञान को अख्यातिरूप मानना तर्कसंगत नहीं है। 2. असत्ख्यातिवाद - ___ सौत्रान्तिक और माध्यमिक (बौद्ध दार्शनिक) कहते हैं कि विपर्ययज्ञान असत्ख्याति रूप होता है क्योंकि उसमें असत् - अविद्यमान अर्थ की ख्याति (प्रसिद्धि) होती है। जैसे - सीप में चाँदी का ज्ञान हुआ वहाँ चाँदी स्पष्ट ही असत् अर्थ है, अविद्यमान अर्थ है और उस असत् या अविद्यमान अर्थ की ख्याति करानेवाला होने से विपर्ययज्ञान असतख्याति-रूप है।