Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 112
________________ जैनविद्या 24 103 43. संशयादिव्यवच्छेदेन हि प्रतिपन्नमर्थस्वरूपं सिद्धमुच्यते, तद्विपरीतमसिद्धम् । प्रमेयकमलमार्तण्ड, (परीक्षामुख, सूत्र 3.20 की टीका) पृ. 369, सत्यभामा बाई पाण्डुरंग निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, 1941. परीक्षामुख, सूत्र 3.18 (3.22) 45. किसी स्थान पर अन्धकार आदि के कारण खड़े हुए पदार्थ को देखकर यह स्थाणु है अथवा पुरुष? इस प्रकार किसी एक का निश्चय नहीं होने से उभय कोटि (पक्ष) के परामर्श करनेवाला संशय से संयुक्त पदार्थ को 'संदिग्ध' कहते हैं। प्रमेयरत्नमाला (हिन्दी), पृ. 149. 46. यथार्थ से विपरीत वस्तु का निश्चय करनेवाले विपर्यय ज्ञान के विषयभूत पदार्थ, जैसे सीप में चाँदी आदि पदार्थ, 'विपर्यस्त' कहलाते हैं। वही, पृ. 149. 47. अनिर्णीत वस्तु को 'अव्युत्पन्न' कहते हैं। अर्थात् नाम, जाति, संख्या आदि के विशेष परिज्ञान न होने से अनिर्णीत विषयवाले अनध्यवसाय ज्ञान से ग्राह्य पदार्थ को 'अव्युत्पन्न' कहते हैं। वही, पृ. 150. 48. परीक्षामुख, सूत्र 3.17 (3.21) 49. (1) वही, सूत्र 3.19-20 (3.23-24) (2) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-द्वितीय (परीक्षामुख सूत्र 3.23-24 की टीका), पृ. 367-368, श्री लाला मुसद्दीलाल जैन चेरीटेबल ट्रस्ट, 2/4 अन्सारी रोड, दरियागंज देहली-110006. 50. परीक्षामुख, सूत्र 3.21 (3.25) 51. जहाँ-जहाँ साधन होता है वहाँ-वहाँ साध्य होता है, जहाँ साध्य नहीं होता है वहाँ साधन भी नहीं होता है, जैसे - जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ आग होती है और जहाँ आग नहीं होती वहाँ धूम भी नहीं होता है। इस प्रकार से जब किसी को साध्यसाधन के अविनाभाव या व्याप्ति का ज्ञान कराया जाता है, तब उसे 'व्याप्ति काल' कहते हैं। 52. यह पर्वत अग्निवाला है; क्योंकि यह धूमवाला है, इस प्रकार से अनुमान के प्रयोग करने को प्रयोग काल' कहते हैं। अर्थात् जब किसी पदार्थ की सत्ता-असत्ता को सिद्ध करने के लिए अनुमान का उपयोग किया जाता है उसे अनुमान का 'प्रयोग काल' कहते हैं।

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