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जैन विद्या 24
साध्य रूप वस्तु के होने पर ही होती है और साध्य रूप वस्तु के नहीं होने पर नहीं होती है, उदाहरण के रूप में - अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता है।
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ज्ञातव्य है, प्रभाचन्द्र के अनुसार अविनाभाव या व्याप्ति सदैव इन्द्रियगम्य साध्यसाधन में ही नहीं पाया जाता है अपितु अनेकबार अनुमान और आगमगम्य परोक्ष साध्य-साधन में भी अविनाभाव या व्याप्ति पाई जाती है। अतः अविनाभाव या व्याप्ति के निश्चय या ज्ञान में अनुमान और आगम भी निमित्त है । किन्तु वहाँ भी उनकी व्याप्ति के ज्ञान में उपलम्भ - अनुपलम्भ निमित्त होने के कारण उनका संग्रह तर्क प्रमाण में हो जाता है। इसलिए व्याप्ति निश्चय के निमित्त या साधन के रूप में उनकी अलग से चर्चा नहीं की गई है। दूसरे, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान भी व्याप्ति ग्रहण या निश्चय के साधन है। किन्तु ये दोनों भी तर्क प्रमाण के निमित्त हैं और 'तर्क प्रमाण' व्याप्ति-ग्रहण का साधन है। अतः इनकी भी अलग से, स्वतंत्र रूप से, चर्चा नहीं की गई है। 73
1.5. अनुमान के भेद
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माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र के अनुसार अनुमान दो प्रकार का है। 1. स्वार्थानुमान और 2 परार्थानुमान, जैसा कि 'परीक्षामुख' ( 3.48-49) लिखा है।
" तदनुमानं द्वेधा । स्वार्थपरार्थभेदात् । "
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1. स्वार्थानुमान - उन्होंने स्वार्थानुमान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है - " स्वार्थमुक्तलक्षणम्" । ( 3.50)
' अर्थात् ऊपर जो अनुमान सामान्य का लक्षण किया गया है वही साधन से होनेवाला साध्य का ज्ञान - स्वार्थानुमान है। अन्य शब्दों में, दूसरे के वचनों के बिना स्वतः ही साधन से साध्य का जो ज्ञान अपने लिए होता है उसे 'स्वार्थानुमान' कहते हैं । इस सन्दर्भ में प्रभाचन्द्र ने (प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, सूत्र 3.54 की टीका में) लिखा है
"स्वार्थमनुमानं साधनात्साध्यविज्ञानमित्युक्त लक्षणम्" ।
2. परार्थानुमान - और स्वार्थानुमान के विषयभूत अर्थ का परामर्श ( विषय करना) करनेवाले वचनों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे 'परार्थानुमान' कहते हैं। 74 अन्य शब्दों में, दूसरे के वचनों के द्वारा होनेवाले साधन से साध्य के ज्ञान को परार्थानुमान कहते हैं । परार्थानुमान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रभाचन्द्र ने लिखा है -