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जैनविद्या 24
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विभिन्न प्रकार से परीक्षण करके उस विषय की सत्यता के प्रति दृढ़ निश्चय उत्पन्न करता है। व्याप्ति सम्बन्ध के निश्चय में तर्क की यह महत्वपूर्ण भूमिका होने पर भी वह स्वयं प्रमाण नहीं है। वह संशय और निर्णय की मध्यवर्ती स्थिति है, स्वयं सम्भावनास्वरूप है, प्रमाणों से अर्थज्ञान प्राप्त करने में सहायक है तथा स्वयं निर्णय-रहित होने के कारण अप्रमाण है।
न्याय दर्शन की व्याप्तिस्थापना-पद्धति की यह कहकर आलोचना की जाती है कि दो पदार्थों के कुछ भावात्मक-अभावात्मक दृष्टान्तों के प्रत्यक्ष के आधार पर उन पदार्थों में सार्वभौमिक और त्रैकालिक नियत साहचर्य सम्बन्ध के सद्भाव का ज्ञान किस प्रकार हो सकता है? इस आपत्ति के उत्तर में नैयायिक कहते हैं कि दो विशेष वस्तुओं का प्रत्यक्ष करते समय व्यक्ति को सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष द्वारा उन दो पदार्थों में विद्यमान सामान्यों का ज्ञान होता है तथा व्यक्ति इन सामान्यों में विद्यमान नियत साहचर्य को जानकर इन सामान्यों के विशेष दृष्टान्तों में व्याप्ति सम्बन्ध की स्थापना करता है। इस प्रकार व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान तर्क द्वारा न होकर तर्क सहकृत प्रत्यक्ष द्वारा होता है।
आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा न्याय मत का खण्डन तथा तर्क की प्रामाणिकता की सिद्धि
आचार्य प्रभाचन्द्र न्यायदर्शन के मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता क्योंकि इस सम्बन्ध का ज्ञान अन्वेषणात्मक प्रक्रिया से होता है तथा इस प्रक्रिया में विभिन्न प्रमाणों से प्राप्त सामग्री के आधार पर ऊहापोहात्मक चिन्तन द्वारा व्याप्ति सम्बन्ध का निश्चय किया जाता है। इसलिये व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान के लिए तर्क ही प्रमाण है। वस्तुतः प्रत्यक्ष का विषय सामने स्थित
और वर्तमानकालीन पदार्थ होता है। किसी भी प्रत्यक्ष में दो वस्तुओं के त्रैकालिक दृष्टान्तों को जानकर उनमें व्याप्ति सम्बन्ध स्थापित करने की सामर्थ्य नहीं है। हजारों अन्वयव्यतिरेकी दृष्टान्तों के प्रत्यक्ष से भी व्यक्ति को व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि ये प्रत्यक्ष मात्र अपने-अपने विषय का ही ज्ञान हैं तथा किसी भी प्रत्यक्ष में अन्य प्रत्यक्षों के विषय को जानकर उनके मध्य तुलनापूर्वक किसी प्रकार के सार्वभौमिक सम्बन्ध को जानने की सामर्थ्य नहीं है। सामान्यलक्षण प्रत्यक्ष द्वारा भी व्याप्ति सम्बन्ध को नहीं जाना जा सकता क्योंकि इस प्रत्यक्ष द्वारा दो विशेष वस्तुओं में विद्यमान सामान्यों का पृथक्-पृथक् ही ज्ञान होता है लेकिन यह प्रत्यक्ष दो सामान्यों में विद्यमान व्याप्ति सम्बन्ध को नहीं जान सकता। जैसे विशेष धुआँ और आग का प्रत्यक्ष