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आप्त का लक्षण
आप्तेनोत्सन्नदोषेण
सर्वज्ञेनागमेशिना ।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवे |5|
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र
टीका 'आप्तेन' भवितव्यं, 'नियोगेन'- निश्चयेन, नियमेन वा । किं विशिष्टेन ? 'उत्सन्नदोषेण ' - नष्ट दोषेण । तथा 'सर्वज्ञेन' - सर्वत्र विषयेऽशेषविशेषतः परिस्फुट परिज्ञानवता नियोगेन भवितव्यम् । तथा 'आगमेशिना' भव्यजनानां हेयोपादेयतत्त्वप्रतिप्रतिहेतुभूतागम प्रतिपादकेन नियमेन भवितव्यम् । कुत एतदित्याह - ‘नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।' 'हि' यस्मात् अन्यथा उक्त विपरीतप्रकारेण, आप्तता न भवेत्। टीकाकार - आचार्य प्रभाचन्द्र
अर्थ - जिसके (क्षुधा पिपासा आदि ) शारीरिक तथा ( रागद्वेष आदि) आन्तरिक दोष नष्ट हो चुके हैं, जो समस्त पदार्थों को उनकी समस्त विशेषताओं के साथ स्पष्ट रूप से जानता है, जो आगम का स्वामी है अर्थात् जिसकी दिव्यध्वनि को सुनकर गणधर द्वादशांग रूप आगम की रचना करते हैं, जो इस तरह भव्य जीवों को हेय और उपादेय तत्त्वों का ज्ञान करानेवाले आगम का मूल प्रतिपादक है वही पुरुष आप्त - सच्चा देव हो सकता है। इस प्रकार सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी पुरुष को आप्त कहते हैं।