Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 85
________________ जैनविद्या 24 करते समय व्यक्ति को उनमें विद्यमान धूमत्व सामान्य और अग्नित्व सामान्य का पृथक्पृथक ही ज्ञान होता है लेकिन उसे इस प्रत्यक्ष द्वारा यह ज्ञान नहीं होता कि धूमत्व सामान्य अग्नित्व सामान्य का अविनाभावी है। अर्थात् अग्नित्व सामान्य के अभाव में धूमत्व सामान्य का सद्भाव असम्भव है। यदि सामान्यलक्षण प्रत्यक्ष द्वारा व्यक्ति को व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान होना सम्भव हो तो प्रथम दर्शनकाल में ही उसे यह ज्ञान हो जाना चाहिये। तब उसे व्याप्ति सम्बन्ध के निश्चय के लिए न तो अनेक अन्वयव्यतिरेकी दृष्टान्तों के पुनः-पुनः प्रत्यक्ष की आवश्यकता होनी चाहिये और न ही इस प्रत्यक्ष द्वारा स्थापित व्याप्ति सम्बन्ध की तर्क से परीक्षा की जानी चाहिये। इस विवेचन से स्पष्ट है कि व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान प्रत्यक्ष से न होकर तर्क प्रमाण से होता है। न्याय दर्शन द्वारा तर्क के जिस रूप सम्भावना स्वरूप होने के कारण अप्रमाण माना गया है वह तर्क जैन दर्शन द्वारा मान्य प्रत्यक्ष का एक चरण 'ईहा' है तथा यह व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान हेतु स्वीकृत तर्क प्रमाण नहीं है। तर्क प्रमाण विभिन्न प्रमाणों से प्राप्त सामग्री के आधार पर घटित होनेवाली विचारात्मक, अन्वेषणात्मक और परीक्षाप्रवण प्रक्रिया है तथा इस प्रक्रिया द्वारा व्याप्ति सम्बन्धों का ज्ञान होता है। . 1. व्याप्तिर्हिसाध्यसाधनयोरविनाभावः। - न्यायकुमुदचन्द्र; पृष्ठ 419 • इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति तु न भवत्येव । ___ - परीक्षामुखसूत्र, 3.12 • यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च। - परीक्षामुखसूत्र, 3.13 • साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः । - परीक्षामुखसूत्र, 3.15. 2. तर्कात्तन्निर्णयः - परीक्षामुखसूत्र, 3.19 3. व्याप्तेः प्रत्यक्षानुपलम्भबलीद्यूतोहाख्य प्रमाणाद्प्रसिद्धः। - प्रमेयकमलमार्तण्ड; पृष्ठ178 4. अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा । स्मृतिसंज्ञायाप्रत्यवमर्शस्य । संज्ञा चिन्तायाः तर्कस्य। - लघीयस्त्रय स्ववृत्ति; गाथा 10 • सुतरां च सकलसाध्यसाधनत्यक्त्युपसंहारेण तद्ग्रह इति साध्यसाधनदर्शन स्मरणप्रत्यभिज्ञानोप-जनितस्तर्क एव प्रतीतिमाधातुमलम् । - जैन तर्कभाषा; पृष्ठ 10 5. अध्यक्षस्यापरीक्षत्वादनुमान न परम्परा । अविनाभावसम्बन्धेऽव्यन्तर्व्याप्त्यावतिष्ठते । बहिर्दर्शनादर्शने धर्मिधर्मस्य न लिंगी लक्षणं तंदुलपाकादिवत्। तन्नैतावता व्याप्तिः अन्यत्र विचारात्, यतो व्यापकं निवर्तमानं व्याप्यं निवर्तयेत्। - प्रमाणसंग्रह-32 और उस पर स्ववृत्ति

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