Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 92
________________ पौवटा 4 'छत्र' से कार्यरूप 'छाया' का अनुमान किया गया है। इसलिए इसे 'अविरुद्धकारणोपलब्धि हेतु' कहा गया है। (4) अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि हेतु - साध्य के अविरोधी पूर्वचर का पाया जाना 'अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि हेतु' कहलाता है, जैसे - “एक मुहूर्त पश्चात् रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा; क्योंकि अभी कृतिका नक्षत्र का उदय हो रहा है"15| धातव्य है - प्रतिदिन क्रम से एक-एक मुहूर्त के पश्चात् अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य आदि नक्षत्रों का उदय होता है। जब जिस नक्षत्र का उदय हो रहा होता है तब उसके पूर्ववर्ती नक्षत्र को 'पूर्वचर' और उत्तरवर्ती नक्षत्र को 'उत्तरचर' कहते हैं। अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि हेतु के उपर्युक्त उदाहरण में 'रोहिणी नक्षत्र का उदय' साध्य है और 'कृतिका नक्षत्र का उदय' हेतु। ‘कृतिका नक्षत्र का उदय' रूप हेतु 'रोहिणी नक्षत्र का उदय' रूप साध्य के पूर्ववर्ती है, अर्थात् इस अनुमान में हेतु साध्य का पूर्वचर है। अतः यह अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि हेतु' का उदाहरण है। (5) अविरुद्धउत्तरचरोपलब्धि हेत - इसके विपरीत जब हेतु साध्य का उत्तरचर होता है, अर्थात् विधि-साधक अविरुद्ध उत्तरचर रूप उपलब्ध हेतु होता है तब उसे 'अविरुद्धउत्तरचरोपलब्धि हेतु' कहते हैं, उदाहरण के रूप में - "भरणी नक्षत्र का उदय एक मुहूर्त पहले हो चुका है; क्योंकि कृतिका का उदय हो रहा है"16। इस उदाहरण में 'भरणी नक्षत्र का उदय' साध्य है और कृतिका नक्षत्र का उदय' हेतु। और कृतिका नक्षत्र भरणी का उत्तरचर है। अतः यह ‘अविरुद्धउत्तरचरोपलब्धि हेतु' का उदाहरण है। (6) अविरुद्धसहचरोपलब्धि हेतु - विधि-साधक, अविरुद्ध सहचररूप उपलब्ध हेतु को अर्थात् जो साध्य के समकाल में हो तथा साध्य का न कारण हो और न कार्य, उसे 'अविरुद्धसहचरोपलब्धि हेतु' कहते हैं, जैसे - "इस मातुलिंगे (= बिजौरा = नारंगी के आकार का नींबू की जाति का फल) में रूप है, क्योंकि इसमें रस है"17। इस अनुमान में 'रूप' साध्य है और 'रस' हेतु तथा रसरूप हेतु साध्यरूप 'रूप' का अविरोधी सहचर है। अतः यह ‘अविरुद्धसहचरोपलब्धि हेतु' का उदाहरण है। 2. विरुद्धोपलब्धि - उपलब्धि हेतु का दूसरा प्रकार है 'विरुद्धोपलब्धि' । यहाँ विरुद्धोपलब्धि हेतु से अभिप्राय है प्रतिषेध्यरूप साध्य से जो विरुद्ध पदार्थ है उस विरुद्ध पदार्थ के सम्बन्धभूत व्याप्य, कार्य आदि की उपलब्धि होना।' विरुद्धोपलब्धि हेतु के भी, अविरुद्धोपलब्धि हेतु की भाँति छः भेद हैं -

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