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जैनविद्या 24
अर्थात् इष्ट, अबाधित और असिद्ध पदार्थ को 'साध्य' कहते हैं। जिसे वादी सिद्ध करना चाहता है उसे 'इष्ट' कहते हैं। जिसमें प्रत्यक्ष आदि किसी प्रमाण से बाधा न आती हो उसे 'अबाधित' कहते हैं। और जो किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हुआ हो उसे 'असिद्ध' कहते हैं। प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में असिद्ध का लक्षण किया है कि "संशय आदि के व्यवच्छेद से पदार्थ का स्वरूप ज्ञात होना 'सिद्ध' कहलाता है और इसके विपरीत ‘असिद्ध',43 अर्थात् पदार्थ के स्वरूप का ज्ञात नहीं होना ‘असिद्ध' कहलाता है।
ध्यातव्य है, साध्य के इस लक्षण में इष्ट आदि तीन विशेषणों को समाविष्ट करने के पीछे एक विशेष प्रयोजन रहा है, वह यह कि साध्य के इस लक्षण में 'इष्ट' पद, को समाहित कर साध्य रूप से अनिष्ट पदार्थों का परिहार किया गया है अर्थात् अनिष्ट पदार्थ साध्य रूप नहीं हो अथवा अनिष्ट पदार्थों में साध्यपना नहीं माना जाए। इसलिए साध्य के लक्षण में इष्ट पद का ग्रहण किया गया है। यदि साध्य के लक्षण में 'इष्ट' पद प्रयुक्त नहीं किया गया होता तब ‘अनिष्ट' पदार्थों में साध्यपना आ जाता अर्थात् अनिष्ट पदार्थ भी साध्य रूप हो जाते (और साध्य के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष का प्रसंग आ जाता)। जैसे शब्द में सर्वथा नित्यपना सिद्ध करना जैनों के लिए अनिष्ट है; क्योंकि जैन 'शब्द' को सर्वथा नित्य नहीं मानते हैं।
साध्य के लक्षण में ‘अबाधित' पद प्रयुक्त कर साध्य रूप से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित पदार्थों का परिहार किया गया है। अन्य शब्दों में, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित पदार्थों के, जैसे शब्द को अश्रावण कहना प्रत्यक्ष बाधि है, ऐसे पदार्थों के साध्यपना (साध्यरूप) नहीं हो। इसलिए साध्य के लक्षण में 'अबाधित' पद प्रयुक्त किया गया है। यदि साध्य के लक्षण में अबाधित को समाहित नहीं किया गया होता तब प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित पदार्थ भी साध्य रूप अर्थात् साध्य की श्रेणी में आ जाते। और, संदिग्ध,45 विपर्यस्त और अव्युत्पन्न” इन तीन प्रकार के पदार्थों के साध्यपना प्रतिपादन करने के लिए अर्थात् संदिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न पदार्थ साध्य रूप हो सके, इस हेतु साध्य के लक्षण में असिद्ध' पद का ग्रहण किया गया है।48
ज्ञातव्य है, माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र के अनुसार साध्य के लक्षण में प्रयुक्त 'इष्ट' और ‘असिद्ध' विशेषणों में से 'इष्ट' विशेषण तो वादी की अपेक्षा से है; क्योंकि, पहले, अपने इष्ट तत्त्व के प्रतिपादन के लिए अर्थात् दूसरे को समझाने के लिए इच्छा (इच्छा का विषयभूत पदार्थ इष्ट कहा जाता है) वादी (वक्ता) की होती है, न कि प्रतिवादी की। दूसरे, वादी का जो इष्ट होता है वही 'साध्य' होता है, न कि सबका इष्ट