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जैनविद्या 24
मार्च 2010
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परीक्षामुख एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड में
'अनुमान' की अवधारणा
- डॉ. राजवीरसिंह शेखावत
जैन दर्शन में प्रमाण को ज्ञानरूप मानकर 'ज्ञान' को ही प्रमाण' स्वीकार किया गया है। उमास्वामी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' (1.10) में ज्ञान के भेदों की चर्चा करते हुए ज्ञान को ही प्रमाण स्वीकार किया है तथा इस सन्दर्भ में लिखा है -
'तत्प्रमाणे और माणिक्यनन्दि ने ‘परीक्षामुख' (1.1) में प्रमाण के स्वरूप की चर्चा करते हुए ज्ञान को ही प्रमाण स्वीकार किया है, उन्होंने लिखा है -
'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्'' माणिक्यनन्दि के अनुसार ज्ञान अथवा प्रमाण के दो प्रकार हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष।' पुनः परोक्ष के पाँच भेद हैं - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। यहाँ हम परोक्ष के इन पाँच भेदों में से ‘अनुमान' की, ‘परीक्षामुख' एवं 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' के विशेष सन्दर्भ में, चर्चा करेंगे। 1.1. अनुमान का लक्षण माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में अनुमान का लक्षण किया है -
'साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्।' (3.10, 3.14)