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जैनविद्या 24
स्मृति - इसमें अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये चार ज्ञान के विषय होते हैं। इसमें कार्य-कारण भाव विद्यमान रहता है, स्मृति अविसंवादि ज्ञान है। स्मृति का आकार तत् है। इसमें धारणरूप संस्कार होता है। किसी निमित्त के द्वारा संस्कार जागृत होता है तब स्मृति होती है, इसलिए स्मृति प्रमाण है। स्मृति में अनुभूत का विषय होता है।” इसे समझाने के लिए यथा 'स देवदत्त इति' - जैसे उदाहरण हैं।
___ बौद्ध पूर्वानुभव को स्मृति मानता है। मीमांसक गृहीतार्थ को विषय बनाता है और नैयायिक उसे अर्थजन्य नहीं मानता। प्रभाचन्द्र ने तत् और धारणा के कारण को विषय बनाया।
__ प्रत्यभिज्ञान - स्मृति का हेतु धारणा है इसलिए प्रत्यभिज्ञान को संकलनात्मक ज्ञान कहा गया है। सादृश्य होने के कारण ‘सादृश्य प्रत्यभिज्ञान' कहलाता है और दोनों समय में एक ही रहनेवाला ज्ञान ‘एकत्व प्रत्यभिज्ञान' कहलाता है। इसके भी दो हेतु हैं - प्रत्यक्ष और स्मरण । प्रत्यक्ष में वस्तु का जैसा विशद रूप से प्रतिभास होता है वह स्मृति में नहीं होता है। वर्तमान पर्याय का दर्शन और पूर्व पर्याय का स्मरण इसकी प्रमुख विशेषता है। नैयायिक प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान मानते हैं और बौद्ध प्रत्यभिज्ञान को नहीं मानते। उनका कहना है कि 'सःअयम्'20 ऐसा ज्ञान प्रत्यक्ष है। दो ज्ञानों का समुच्चय है। एक स्वतंत्र ज्ञान नहीं।21 तर्क -
उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानसमूहः। उपलंभ और अनुपलंभ के कारण जो व्याप्ति-ज्ञान होता है उसे तर्क कहते हैं। प्रभाचन्द्र ने तर्क को ऊह कहा है। न्यायावतार, न्यायविनिमय, प्रमाण-मीमांसा आदि में साध्य और साधन को महत्त्व दिया गया है। जिसे तथोत्पत्ति भी कहा है।23 बौद्ध तर्क को प्रमाण नहीं मानता वह प्रत्यक्ष और अनुमान को महत्त्व देता है। अनुमान -
साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् ।24 साधन से साध्य विज्ञान को अनुमान कहा गया है। जैसे पर्वत में धूम देखकर अग्नि का ज्ञान । न्यायशास्त्र-परम्परा में अविनाभाव सम्बन्ध स्वीकार किया है। जिसमें साध्य के बिना साधन नहीं होता है। ऐसा कथन किया गया है। अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक होता है। उसके तीन भेद हैं - (1) पूर्ववत्, (2) शेषवत् और (3) सामान्यतोदृष्ट ।