Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 73
________________ जैनविद्या 24 विचारकों द्वारा प्रतिपादित प्रमाण को खंडित किया गया है, क्योंकि बौद्धों ने अभिसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहा है जो मात्र ज्ञान तक ही सीमित है। इसमें संशय और विपर्यय ज्ञान भी होता है इसलिए आचार्य प्रभाचन्द्र ने ज्ञान के द्वारा 'निश्चयात्मक ज्ञान' को महत्व दिया, वही ज्ञान निर्णयात्मक होता है, बाधाओं से रहित होता है। मीमांसक 'ज्ञान' को विशेष महत्त्व देते हैं। उनका कहना है कि ज्ञान 'अर्थ' को जानता है, स्वयं को नहीं जानता, वह अनुमेय है। सांख्य 'ज्ञान' को अचेतन मानता है। आचार्य प्रभाचन्द्र के 'ज्ञान' का अभिप्रायः इनसे भिन्न है। उनके अनुसार 'ज्ञान' स्वयं प्रकाशी है एवं दूसरों को भी प्रकाशित करता है। इसलिए उनकी परिभाषा में 'व्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम्' पद तीनों ही काल के विषय को प्रतिपादित करनेवाला है। प्रमाण-भेद - प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के ये दो भेद कहे गये हैं। जिसमें 'विशदं प्रत्यक्षम्' अर्थात् जो विशुद्ध ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है। अर्थात् जो ज्ञान स्पष्ट होता है वह प्रत्यक्ष होता है। स्पष्टता में इन्द्रियों का प्रयोजन नहीं होता अपितु आत्मा ही मूल कारण बनती है। इसलिए प्रति+अक्षम् = प्रत्यक्षम्, अक्ष के दो अर्थ होते हैं - एक अर्थ होता है इन्द्रिय और दूसरा अर्थ है आत्मा।13 इन्द्रियों के कारण जो ज्ञान होता है वह अविशद होता है। अविशद को परोक्ष प्रमाण' कहा गया है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के विवेचन को निम्न प्रमाणों से सिद्ध किया है - प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृत्तिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदम् । स्मृति, प्रत्याभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम - ये पाँच परोक्ष प्रमाण हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र ने द्वितीय परिच्छेद में प्रत्यक्ष को विशद कहकर उसे 'इन्द्रिय' और 'अनिन्द्रिय' की अपेक्षा विभक्त किया है। प्रवृत्ति और निवृत्ति, इन्द्रिय और अनिन्द्रिय आदि का विषय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है, जो एकदेश प्रत्यक्ष माना गया है। प्रभाचन्द्र ने विशद और ज्ञान इन दोनों का बोध कराया है। प्रमाण प्रत्यक्ष परोक्ष सांव्यवहारिक मुख्य स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान आगम

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