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जैनविद्या 24
1. आगम युग अंग, उपांग आदि आगम में ज्ञान और दर्शन की विशुद्ध चर्चा है, उसमें साकार और अनाकार दृष्टियाँ हैं । विधि और निषेध भी है, उसमें ज्ञान के विषय को दो दृष्टियों से प्रस्तुत किया गया है जिसे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कहते हैं । ' वस्तु तत्त्व के प्रतिपादन में प्रमाण और नय इन दो विशेषताओं की प्रमुखता है ।
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2. दर्शन युग आगम के पश्चात् दार्शनिक परम्परा का भी प्रारंभ हुआ, उस परम्परा में सूत्रकृतांग में प्रतिपादित स्व- समय और पर समय के साथ-साथ क्रियावादी, अक्रियावादी, आत्मवादी, लोकवादी, न्यायवादी, नियतिवादी, स्वभाववादी, क्षणिकवादी आदि जो दृष्टियाँ हैं वे सभी दार्शनिकों के विचारों में किसी न किसी रूप में अवश्य प्राप्त होती हैं। जैन दार्शनिक - परम्परा में आगम के पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादितं प्रमाण और नय का विषय दार्शनिक दृष्टि को लिये हुए है, जिसे आधार बनाकर पूज्यपाद अकलंक, विद्यानंद आदि ने विस्तृत व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं। इसके अनन्तर सिद्धसेन ने प्रमाण और नय के विषय को अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादित किया । यह क्रम आगे भी
चलता रहा ।
3. प्रमाण युग - आचार्य सिद्धसेन ने तीसरी - चौथी शताब्दी में प्रमाण-व्यवस्था पर गंभीर चिन्तन प्रस्तुत किया। आचार्य अकलंक, आचार्य हरिभद्र, माणिक्यनन्दि, वादिदेव सूरि, हेमचन्द्र आदि ने प्रमाण की परिभाषाएँ देकर सम्पूर्ण प्रमाण के विषय को व्यापकरूप में प्रस्तुत किया ।
बौद्ध, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक आदि ने भी प्रमाण की शास्त्रीय परिभाषाएँ दीं।
बौद्ध - आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाण को अभिसंवादी ज्ञान कहा । ' नैयायिक – न्यायवार्तिककार ने अर्थोपलब्धि को प्रमाण माना ।' इसी तरह सांख्य-योग-मीमांसक आदि ने प्रमाण सम्बन्धी परिभाषाएँ दीं जिन्होंने अर्थ - ज्ञान को प्रमाण माना या साधकतम कारण को प्रमाण कहा । ' आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा प्रतिपादित प्रमाण : स्वरूप और विश्लेषण
आचार्य प्रभाचन्द्र का समय 10वीं शताब्दी निर्धारित किया गया है । इन्होंने परीक्षामुख के 212 सूत्रों पर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त उनकी निम्न रचनाएँ भी हैं न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्थवृत्तिपद-विवरण, शाकटायनन्यास, शब्दाम्भोजभास्कर, प्रवचनसरोजभास्कर, गद्य कथाकोश ।
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