Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 69
________________ प्रमाण * स्वपूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।1.1। - परीक्षामुख - स्व अर्थात् अपने आपके और अपूर्वार्थ अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण से जाना नहीं है, ऐसे पदार्थ के निश्चय करनेवाले ज्ञान को 'प्रमाण' कहते हैं। - प्रमेयरत्नमाला * हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । 1.21 - परीक्षामुख - यतः (क्योंकि) प्रमाण हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ है अतः वह ज्ञान ही हो सकता है। (जो ज्ञानरूप नहीं है वह हित की प्राप्ति व अहित के परिहार में समर्थ नहीं है।) ____ - प्रमेयरत्नमाला नय * अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः।6.741 - प्रमेयकमलमार्तण्ड - जिसने प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं किया है और जो वस्तु के एक अंश (धर्म) को ग्रहण करता है, ज्ञाता के ऐसे अभिप्राय को 'नय' कहते हैं। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। ज्ञाता वस्तु के उन अनन्त धर्मों में से 'नय' के द्वारा मुख्यरूप से एक धर्म का विचार करता है, किन्तु शेष धर्मों का निराकरण न करके उनका भी अस्तित्व स्वीकार करता है, यही 'नय' है। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, इसलिए नय भी अनन्त हैं। प्रमाण और नय में अन्तर ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेषः प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुतो भेदः ।1.679। स यथा विषयविशेषो द्रव्यैकांशो नयस्य योऽन्यतमः। सोऽप्यपरस्तदपर इह निखिलं विषयः प्रमाणजातस्य।1.680। - पंचाध्यायी, पं. राजमल्ल - नियम से नय भी ज्ञान विशेष है और प्रमाण भी ज्ञान विशेष है। दोनों में विषय विशेष की अपेक्षा से ही आन्तरिक भेद है, ज्ञान की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। नय का विषय द्रव्य का कोई एक अंश विशेष है और प्रमाण का विषय उस अंश विशेष के साथ उसके अतिरिक्त/भिन्न शेष सब अंश हैं। | अर्थात् प्रमाण सामान्य-विशेषात्मक पूरी वस्तु को एकसाथ जानता है और नय उसके किसी एक अंश को मुख्य (शेष को गौण) करके जानता है।

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