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जैनविद्या 24
संसाराम्भोधिमध्योत्तरण करणयानरत्नत्रयेशः । सम्यग्जैनागामार्थान्वितविमलमतिः श्रीप्रभाचन्द्रयोगी ।।45 ।।
सकलजनविनूतं चारुबोधनेत्रम्, सुकरकविनिवासं भारतीनृत्यरङ्गम् । प्रकटितनिजकीर्ति दिव्यकान्तामनोज,
सकलगुणगणेन्द्र श्रीप्रभाचन्द्रदेवं ।।46 ।। इन्हीं प्रभाचन्द्र की शिष्या शान्तलादेवी थीं जो होय्सल वंश के राजा विष्णुवर्धन (विट्टिादेव) की पटरानी थीं। इनका स्वर्गवास 1146 ई. के आसोज सुदी 10, बृहस्पतिवार को हुआ था, उसी की स्मृतिस्वरूप यह शिलालेख लिखा गया था।'
3. तीसरे ‘प्रभाचन्द्र' 'आचार्य चतुर्मुख' के शिष्य थे। इनका शिलालेख चन्द्रगिरि के कत्तिले बस्ती के द्वार से दक्षिण की ओर एक प्रस्तर स्तंभ पर अंकित है जो लगभग शक सं. 1022 में अर्थात् 1100 ई. में उत्कीर्णित किया गया था। ये धाराधीश राजा भोजराज से सम्मानित किये गये थे। ये मूल संघदेशीय गण वक्रगच्छ के पण्डित प्रवर थे। ये दाक्षिणात्य थे।
श्रीधाराधिपभोजराज-मुकुट-प्रोताश्मरश्मिच्छटा, च्छायाकुङ्कमपंकलिप्त-चरणाम्भोजात-लक्ष्मीधवः । न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिश्शब्दाब्जरोदोमणि, स्थेयात्पण्डितपुण्डरीक-तरणि श्री मान्प्रभाचन्द्रमाः ।।17।। श्री चतुर्मुखदेवानां शिष्योऽधृष्यः प्रवादिभिः ।
पंडितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादि-गजाङ्कशः ।।18 ।। 4. चौथे 'प्रभाचन्द्र' सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री आचार्य नयकीर्ति सिद्धान्तदेव के शिष्य थे, जो मूल संघ, कुन्दकुन्दान्वय देशीयगण पुस्तकगच्छ के आचार्य थे। नागदेव हेगडे नामक व्यक्ति ने 'नागसमुद्र' नामक सरोवर और एक उद्यान बनवाया था। इन्होंने अपने गुरु नयकीर्ति आदि के साथ उसे उन्हें ही सौंप दिया था कि वे गोमट्टदेव की अष्ट विधि पूजन के लिए चार गद्याण (तत्कालीन प्रचलित स्वर्ण-मुद्रा) दिया करे।
यह उल्लेख (लगभग शक सं. 1122 अर्थात् 1200 ई.) विन्ध्यगिरि पहाड़ी के दक्षिणमूल में एक चट्टान पर अंकित है।'
5. पाँचवें 'प्रभाचन्द्र' दामनन्दि त्रैविद्यदेव के शिष्य थे। यह तथ्य श्रवणबेलगोला के नगर जिनालय में उत्तर की ओर शक सं. 1118 ई. के अंकित एक लेख से पता चलता है।