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जैनविद्या 24
आचार्य विद्वान स्व-परिचय लिखने में संकोच करते रहे हैं। कुन्दकुन्दादि आचार्यपरम्परा में प्रायः सभी श्रेष्ठ मनीषी विद्वानों ने ग्रन्थ समाप्त कर ऐतिहासिक संकेतों के विषय में कुछ भी नहीं लिखा। आज हम-जैसे शोधार्थी जब उनके विषय में लिखना चाहते हैं तो परमुखापेक्षी रहते हैं। यदि कोई प्रामाणिक सामग्री एकत्र करते हैं तो बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। तीसरे, हम लोगों की उपेक्षा ने और प्रेस के विकास ने पुरानी पांडुलिपियों को दीमक तथा सफेद कीटों के भरोसे छोड़ दिया जिससे आज हम 'गंधहस्तिभाष्य' जैसे बहुमूल्य ग्रन्थों के लिए तड़प रहे हैं। __ अब हम अन्य प्रभाचन्द्रों का सांकेतिक परिचय देकर अपने नायक के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर कुछ प्रकाश डालेंगे।
1. सबसे पहले उन ‘प्रभाचन्द्र के विषय में जानते हैं जो ‘चन्द्रगुप्त' नाम से भी प्रथित थे। जब आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने उज्जैन में 12 वर्ष के घोर अकाल की भविष्यवाणी की तो समस्त संघ उत्तर से दक्षिण की ओर गमन कर गया और वहाँ एक समृद्ध जनपद में ठहरा। इनमें से आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी आयु अति अल्प शेष जानकर कटवप्र नामक शिखर पर समाधि धारण कर ली। शेष संघ आगे बढ़ गया। यह उल्लेख चन्द्रगिरि पर्वत की पार्श्वनाथ वसदि के दक्षिण ओर के शिलालेख में अंकित है। यह तथ्य जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग की भूमिका के 62 पृष्ठ पर अंकित है। यह लेख लगभग शक सं. 522 में लिखा गया है। अर्थात् सम्राट चन्द्रगुप्त आचार्य भद्रबाहु से दीक्षित हो 'प्रभाचन्द्र' नाम से विख्यात हुए, ऐसा अनुमानित किया जाता है।
2. दूसरे ‘प्रभाचन्द्र' 'आचार्य मेघचन्द्र' के शिष्य हैं जिनका उल्लेख चन्द्रगिरि के सवति गन्धवारण बस्ती के प्रथम मण्डप के एक स्तम्भ पर अंकित है जो लगभग 1146 ई. का है। यह शिलालेख श्लोकों में है -
विद्य-योगीश्वरमेघचन्द्रस्याभूत्प्रभाचन्द्र, मुनिस्सुशिष्यः शुम्भव्रताम्भोनिधिपूर्णचन्द्रो नि तदण्डत्रितयोविशल्यः ।।43 ।। त्रैविद्योत्तममेघचन्द्रसुतपः पीयूषवारासिजः सम्पूर्णाक्षयवृत्तनिर्मलतनुः पुष्यद्धधानन्दनः । त्रैलोक्यप्रसरद्यशः शुचिरुचिः यः प्रार्थपोषागमः, सिद्धान्ताम्बुधिवर्धनो विजयतेऽपूर्वप्रभाचन्द्रमाः ।।44 ।।