Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 55
________________ जैनविद्या 24 भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। श्री मुख्तारसा. इसे किसी अन्य प्रभाचन्द्र की मानते हैं, जो अपुष्ट एवं असिद्ध है । 46 13. शाकटायन न्यास यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्य ने 'शाकटायन व्याकरण' निर्मित किया था । इन्होंने केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति के प्रकरण लिखे हैं । आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी टीकाओं में इन दोनों प्रकरणों का खंडन आनुपूर्वी से किया है। न्यायकुमुदचन्द्र में स्त्रीमुक्ति प्रकरण से एक कारिका भी उद्धृत की है। शाकटायनाचार्य के 'शाकटायन व्याकरण व्याख्या' ग्रन्थ को श्री पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री द्वारा आचार्य प्रभाचन्द्र-कृत माना गया है । इस ग्रन्थ में मंगल श्लोक नहीं है । सन्धियों के अन्त में या ग्रन्थ में कहीं भी प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख न होने तथा उक्तानुसार विचार - विरोधी होने के कारण श्री डॉ. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य इस टीका को आचार्य प्रभाचन्द्रकृत नहीं स्वीकारते। प्रभाचन्द्र ने अपनी न्याय-ग्रन्थ टीकाओं में 'जैनेन्द्र व्याकरण' से ही सूत्रों के उद्धरण दिये हैं। शाकटायन व्याकरण से एक सूत्र भी उद्धृत नहीं किया। उन्होंने अपनी किसी टीका ग्रन्थ में भी इसका उल्लेख नहीं किया जैसा कि प्रायः वे करते रहे हैं। हो सकता है स्वयं शाकटायन ने अपने ही व्याकरण पर न्यास लिखा हो । - 14. आत्मानुशासन तिलक - 'आत्मानुशासन' उत्तरपुराण के रचयिता आचार्य गुणभद्र की सुन्दर कृति है । इसमें भर्तृहरि के 'वैराग्य शतक' की शैली में रचित 272 श्लोक हैं। यह ग्रन्थ ज्ञान और वैराग्य का पोषण करनेवाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी संस्कृत टीका आचार्य प्रभाचन्द्र ने की है । आचार्य -कल्प पण्डित टोडरमलजी ने इसकी देशीभाषामय टीका लिखी । जैन समाज में 'आत्मानुशासन' ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है । प्राप्त आत्मानुशासन तिलक के अन्त में निम्न प्रशस्ति लिखी है - इति श्री आत्मानुशासन ( नं) सतिलक (कं) प्रभाचन्द्राचार्य विरचित (तं) सम्पूर्णम्। 'स्वयंभू स्तोत्र टीका' भी आपकी मानी जाती है जिसकी पुष्टि होना शेष है । दक्षिण देश में जन्मे आचार्य प्रभाचन्द्र उत्तर की धारानगरी को अपना कर्मस्थल बनाकर जिनेश्वरी दीक्षा अनुरूप ज्ञान, ध्यान और तप तथा स्वाध्याय, साहित्यसृजन में अपनी आत्मीक शक्तियों का उपयोग करते हुए अमर हो गये । उनके कर्तृत्व की कीर्ति से उनकी रचनाओं के सम्पादक एवं पाठकगण भी अपने आत्म-वैभव के स्वरूप को समझकर बौद्धिक प्रमाणिकता सहित कृतार्थ हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। इनके समकालीन राजा भोज और राजा जयदेवसिंह भी अपनी सहिष्णुता, गुणग्राहकता आदि गुणों के कारण प्रसिद्धि प्राप्त हैं, किन्तु उनके द्वारा निर्मित भव्य महल धूस - धूसरित

Loading...

Page Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122