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जैन विद्या 24
करते थे, जो न्यायरूपी कमल - समूह को मण्डित करनेवाले दिनमणि ( मार्त्तण्ड ) थे (जिन्होंने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड नामक ग्रंथ की रचना की थी), जो शब्दाब्ज (शब्दरूपी कमलों) को विकसित करनेवाले रोदोमणि (भास्कर) थे ( जिन्होंने शब्दाम्भोज भास्कर ग्रंथ की रचना की थी) और जो पण्डित पुण्डरीकों (पण्डितरूपी कमलों) को प्रफुल्लित करनेवाले तरणि (सूर्य) थे। ऐसे श्रीमत् प्रभाचन्द्र चिरजीवी हों अर्थात् उनका यश अक्षुण्ण रहे। श्री चतुर्मुख देवों के शिष्य, प्रवादियों द्वारा अविजित, रुद्रवादि गजों पर अंकुश रखनेवाले ऐसे प्रभाचन्द्र पण्डित थे ।
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श्री प्रभाचन्द्र का परिचय देनेवाले और उनकी यशोगाथा को ध्वनित करनेवाले एक शिलालेख का उल्लेख श्रवणबेलगोला के शिलालेख संख्या 64 में मिलता है जो निम्न प्रकार है
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अविद्धकर्ण्यादिक पद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेव- व्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्तुसो
ज्ञाननिधिस्सधीरः ।।
तच्छिष्यः सिद्धान्ताम्बुधिपारगो शब्दाम्भोरूह - भास्करः चन्द्राख्यो मुनिराज - पण्डितवरः
श्री कुण्डकुन्दान्वयः ।
इसके अनुसार मूल संघान्तर्गत नन्दिगण के प्रभेदरूप देशीयगण के गोल्लाचार्य के शिष्य अविद्धकर्णी और कौमारव्रती अपूर्व ज्ञान के भण्डार पद्मनन्दि सैद्धान्तिक नामक विद्वान हुए जिनकी लोक में अद्वितीय प्रसिद्धि है, वे जयवन्त हों। उनके शिष्य ं सिद्धान्तसागर में पारंगत, सच्चारित्र के धारक कुलभूषण नामक यति के. सधर्मा महान शब्दाम्भोरूहभास्कर नामक प्रथित तर्क ग्रंथ के कर्त्ता श्री कुण्डकुण्डान्वय के मुनिराज पण्डित प्रवर प्रभाचन्द्र हुए ।
कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारान्निधिः
नतविनेयस्तत्सधर्मो प्रथिततर्क ग्रन्थकारः
महान् ।
प्रभा
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इस शिलालेख से एक यह तथ्य भी सुस्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र 'न्यायकुमुदचन्द्र' और 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' जैसे तर्क ग्रंथों के रचयिता होने के साथसाथ 'शब्दाम्भोजभास्कर' नामक जैनेन्द्र न्यास के भी कर्ता थे । यह शिलालेख यह भी संकेत करता है कि प्रभाचन्द्र के गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्तिक थे जो अविद्धकर्णी और कौमार देवव्रती थे जो दक्षिण भारत के निवासी थे । पद्मनन्दि से शिक्षादीक्षा लेकर प्रभाचन्द्र उत्तर भारत में आकर धारा नगरी में निवास करने लगे । यहाँ वे आचार्य माणिक्यनन्दि के सम्पर्क में आए और उनका शिष्यत्व स्वीकार