Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ जैनविद्या 24 जैनधर्मानुमत विभिन्न धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक, तात्त्विक, तार्किक (न्यायप्रधान), व्याकरण, आचार-शास्त्र आदि विषयों पर ग्रंथों की रचना कर अपनी विलक्षण प्रतिभा एवं वैदूष्य की छाप छोड़नेवाले जैनाचार्यों की परम्परा में प्रथित तर्क ग्रंथकार' और 'शब्दाम्भोरुह भास्कर' आदि विशेषणों से सुशोभित, विलक्षण तार्किक, बुद्धि-वैभव से सम्पन्न, महनीय व्यक्तित्व के धनी पण्डितप्रवर प्रभाचन्द्र ऐसे अप्रतिम मनीषी हैं जिन्होंने अत्यन्त दुरूह विषय पर अपनी लेखनी का चमत्कार प्रदर्शित कर अपने प्रखर पाण्डित्य का परिचय दिया है। उन्होंने ‘परीक्षामुख' ग्रंथ पर 12,000 श्लोकप्रमाण वृहदाकार टीका जो 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' के नाम से ख्यात है लिखकर जैन वाङ्मय के भण्डार को अपूर्वता प्रदान की है। यह जैन न्याय शास्त्र का एक ऐसा अद्वितीय-अपूर्व और महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो प्रमेयरूपी-कमलों को उद्भासित करनेवाले मार्तण्ड - सूर्य की भाँति है। __ श्रीमत्प्रभाचन्द्र द्वारा लिखित ग्रंथों, टीका-टिप्पणों, व्याख्याओं तथा अन्य रचनाओं से अभिव्यक्त उनका वैदूष्य, पाण्डित्य, व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व यद्यपि निर्विवाद है, फिर भी जैनाचार्यों की परम्परा में प्रभाचन्द्र नामधारी एकाधिक विद्वानों और उनकी रचनाओं - कृतियों का उल्लेख मिलने से उनका काल (समय) निर्धारण करने में किंचित् संशय उत्पन्न कर दिया है। तथापि विभिन्न शास्त्रीय उद्धरण जो उनके नाम से या उनके विषय में प्राप्त होते हैं तथा उपलब्ध अन्य साक्ष्यों के आधार पर उनका निर्विवाद काल निर्णय करना अधिक कष्ट-साध्य नहीं है। इस सम्बन्ध में कतिपय उन सन्दर्भो का यहाँ उल्लेख करना अभीष्ट है जो उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को रेखांकित करते हैं। पण्डितप्रवर प्रभाचन्द्र के प्रति श्री चारुकीर्ति द्वारा किए गए गुरु-गुण-संकीर्तन से उनकी महनीयता प्रतिपादित होती है जो निम्न प्रकार है - जयतु प्रभेन्दु सूरिः प्रमेयकमल-प्रकाण्डमार्तण्डेन । यद् वदन निसृतेन प्रतिहतमखिलं तमो हि बुधवर्गाणाम् ।' अर्थात् जिनके मुख से निःसृत प्रमेयकमल रूपी प्रकाण्ड मार्तण्ड ने विद्वानों के अखिल अंधकार (आज्ञानान्धकार) को हर लिया उन प्रभाचन्द्र की जय हो। आगे भी श्रीमत्प्रभाचन्द्र के प्रति विनम्रतापूर्वक अपनी अल्प मति का उल्लेख करते हुए गुरु के गुणों का बखान करना चारुकीर्ति को अधिक अभीष्ट

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122