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जैनविद्या 24
धर्म-व्यवस्था न होकर मात्र क्रिया-आधारित समाज-व्यवस्था है। यह जन्मना न होकर कर्मणा है। पद्मचरित्र के अनुसार वर्ण-व्यवस्था गुण-कर्म के अनुसार है, योनिनिमित्तक नहीं। ऋषिशृंग आदि में ब्राह्मण व्यवहार गुणनिमित्तक ही हुआ है। चातुर्वर्ण्य या चाण्डाल आदि व्यवहार सब क्रियानिमित्तक हैं (पद्मचरित्र-रविषेण, 11.198 से 205 श्लोक)। इसी के अध्याय 11 के 20वें श्लोक में व्रतधारी चाण्डाल को ब्राह्मण कहा है -
'व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः'।
पूर्ववर्ती आचार्य जटासिंहनन्दि ‘वरांग चरित्र' (25.11) में लिखते हैं कि - शिष्टजन वर्ण-व्यवस्था को अहिंसादिक व्रतों का पालन, रक्षा करना, खेती आदि करना तथा शिल्पवृत्ति इन चार प्रकार की क्रियाओं से ही मानते हैं। वर्ण-विभाजन सामाजिक व्यवस्था के लिए हैं, इसका अन्य कोई हेतु नहीं है।
जिनसेन आचार्य ने आदिपुराण पर्व 38, श्लोक 45-46 में कहा है कि जाति नामकर्म से तो सब की एक ही 'मनुष्य जाति' है। ब्राह्मण आदि चार भेद वृत्ति अर्थात् आचार-व्यवहार से है। व्रत-संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र होते हैं।
___ आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा कि - जिन-जिन व्यक्तियों में जो-जो गुण-कर्म पाए जायेंगे उसी अनुसार उनमें ब्राह्मण आदि व्यवहार होगा और उसी अनुसार वर्ण-व्यवस्था चलेगी। जैनदर्शन व्यक्ति-स्वतंत्रतावादी है, पुरुषार्थ-विश्वासी है। शूद्र भी इसी जन्म में अपने पुरुषार्थ से सर्वोच्च मुनिदीक्षा ले सकता है। इसकी पुष्टि आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' पृ. 778 में निम्नरूप से की है -
___ "क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्व्यस्थायाः तद्व्यवहारस्य चोपपत्तेः । तन्न भवत्कल्पितं नित्यादिस्वभावं ब्राह्मण्यं कुतश्चिदपि प्रमाणात् प्रसिध्यतीति क्रियाविशेष निबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारो युक्तः।"
___अर्थ - जो व्यक्ति यज्ञोपवीत आदि चिह्नों को धारण करे तथा ब्राह्मणों के योग्य विशिष्ट क्रियाओं का आचरण करे उनमें ब्राह्मणत्व जाति से सम्बन्ध रखनेवाली वर्णाश्रम-व्यवस्था और तप-दान आदि व्यवहार भली-भाँति किये जा सकते हैं। अतः आपके द्वारा माना गया नित्य आदि स्वभाववाला ब्राह्मणत्व किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, इसलिये ब्राह्मण आदि व्यवहारों को क्रियानुसार ही मानना युक्ति-संगत है।