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जैनविद्या 24
37 अपनी रचनाओं में दिये हैं। प्रभाचन्द्र व्याकरण शास्त्र के भी विशिष्ट ज्ञाता थे। उन्हें पातंजल महाभाष्य का तलस्पर्शी ज्ञान था।
प्रभाचन्द्र शुष्क दार्शनिक और तार्किक ही नहीं थे, उन्हें जीवनोपयोगी आयुर्वेद का भी ज्ञान था। उन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड में बधिरता एवं अन्य कर्ण रोगों के लिए 'वलातैल' का उल्लेख किया है। न्यायकुमुदचन्द्र में छाया को पौद्गलिक सिद्ध करने हेतु उन्होंने वैद्यक शास्त्र का निम्नलिखित श्लोक प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया। यह श्लोक राजनिघण्टु में कुछ पाठभेद के साथ पाया जाता है -
आतपः कटुको रूक्षः छाया मधुरशीतला।
कषायमधुरा ज्योत्स्ना सर्वव्याधिहरं (कर) तमः।। - प्रमेयकमलमार्तण्ड में नड्वलोदक-तृण विशेष के जल से पाद रोग की उत्पत्ति ‘बताई है। वैद्यकतंत्र में प्रसिद्ध, विशद, स्थिर, स्वर, पिच्छलत्व आदि गुणों से वैशेषिकों के गुण-पदार्थ का खण्डन किया है। कल्पनाशीलता
प्रभाचन्द्र कल्पनाशील व्यक्तित्व के धनी थे। अकलंकदेव एवं अन्य आचार्यों ने वस्तु की अनन्तात्मकता या अनेक धर्माधारता की सिद्धि के लिए चित्रज्ञान, सामान्यविशेष, मेचकज्ञान और नरसिंह आदि के दृष्टान्त दिये हैं। प्रभाचन्द्र ने इसके समर्थन में 'उमेश्वर' का दृष्टान्त दिया है। वे लिखते हैं जैसे - 'शिव' वामांग में उमा-पार्वती रूप होकर भी दक्षिणांग में विरोधी शिवरूप धारण करते हैं और अपने अर्धनारीश्वर रूप को दिखाते हुए अखण्ड बने रहते हैं उसी प्रकार एक ही वस्तु विरोधी दो या अनेक आकारों को धारण कर सकती है। इसमें कोई विरोध नहीं होना चाहिये। यह उद्धरण उनकी गहरी विचारशीलता और कल्पनाशीलता दर्शाता है। उदात्त विचार एवं सर्वोदयी भावना । ___तार्किक प्रभाचन्द्र अत्यन्त उदार विचारवाले थे। वे व्यक्ति-स्वातंत्र्य एवं सर्वोदय की भावना के प्रबल समर्थक थे। आत्मधर्म धारण करने में जाति, वर्ण, गौत्र, वंश आदि कोई भी बाह्यतत्व बाधक नहीं है, ऐसी उनकी मान्यता थी। एकबार प्रभाचन्द्र ने शूद्रों को जैन दीक्षा दी। इससे राजपुरोहित बहुत कुपित हुआ और प्रकरण राजा भोज के समक्ष निर्णयार्थ पहुँचा। आचार्य प्रभाचन्द्र ने जन्मजात वर्ण-व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ा दी। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणत्व नित्यत्व एवं ब्रह्मप्रभत्व रूप नहीं है। वर्ण-व्यवस्था