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जैनविद्या 24 कुछ भी नहीं लिखा जबकि डॉ. दरबारीलालजी कोठिया ने जैन न्याय की भूमिका' में माणिक्यनन्दि को प्रभाचन्द्र का न्यायविद्या-गुरु बताया है। इस सम्बन्ध में सूक्ष्म अनुसंधान अपेक्षित है।
उस समय धारा नगरी के राजा भोज थे। वे धाराधीश भोज के द्वारा पूज्य एवं सम्मान प्राप्त थे। परीक्षामुख की सुप्रसिद्ध दार्शनिक टीका प्रमेयकमल-मार्तण्ड ग्रन्थ धारानगरी में राजा भोज के काल में बनाया गया था। जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्ति - 'श्रीभोजदेवराज्ये धारानिवासिना' से ज्ञात होता है। राजा भोज के बाद उसका उत्तराधिकारी जयसिंह देव हुआ। न्यायकुमुदचन्द्र, आराधना गद्य कथाकोश और महापुराण आदि की अन्तिम प्रशस्तियों - 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना' से ज्ञात होता है कि इन ग्रन्थों की रचना श्री जयसिंहदेव के राज-काल में हुई। इसप्रकार आचार्य प्रभाचन्द्र का कार्यक्षेत्र धारा नगरी रहा। राजा भोज के समय के दो दान पत्र सम्वत् 1076 (ई. 1019) एवं 1079 (ई. 1022) मिले हैं।
श्रवणबेलगोला के शिलालेख क्रमांक 55 में मूलसंघ के देशीगण के देवेन्द्र सैद्धान्तदेव का उल्लेख है। इनके शिष्य चतुर्मुख देव और चतुर्मुख देव के शिष्य गोपनन्दि थे। इन गोपनन्दि के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का वर्णन पद्य संख्या 17 एवं 18 में आया है। इन श्लोकों में वर्णित प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजराज के द्वारा पूज्य थे। न्यायरूप कमल-समूह (प्रमेय कमल) के दिनमणि (मार्तण्ड) थे, शब्दरूप अब्ज (शब्दाम्भोज) के विकास करने को रोदोमणि (भास्कर) के समान थे। पण्डितरूपी कमलों को प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य थे, रुद्रवादि गजों को वश करने के लिए अंकुश के समान थे तथा चतुर्मुखदेव के शिष्य थे।
___ क्या शिलालेख में वर्णित प्रभाचन्द्र और पद्मनन्दि सैद्धान्त के शिष्य, प्रथिततर्क ग्रन्थकार एवं शब्दाम्भोज भास्कर प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं? सुप्रसिद्ध न्यायाचार्य (स्व.) पण्डित डॉ. महेन्द्रकुमारजी ने इस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' में दिया है। इसमें गुरुरूप में चतुर्मुखदेव का नाम आया है। डॉ. जैन के अनुसार चतुर्मुखदेव द्वितीय गुरु या गुरुसम हों, और धारानगरी में आने के बाद देशीयगण के आचार्य चतुर्मुखदेव को गुरु रूप में स्मरण किया हो! परन्तु यह सुनिश्चित है कि आचार्य प्रभाचन्द्र के आद्य गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्तिक देव ही हैं।