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जैनविद्या 24
समर्थन अथवा खण्डन, जो भी हो, प्रचुर युक्तियों से करते हैं। यह इनकी विलक्षणता है कि विषय-प्रतिपादन शैली में तो ये तार्किक हैं ही, चिन्तन की गम्भीरता के कारण दार्शनिक भी हैं जिससे प्रतीत होता है कि इन्होंने वैदिक और अवैदिक दर्शनों का गहन अध्ययन किया था।
पण्डित प्रभाचन्द्र के कर्तृत्व पर जब दृष्टिपात करते हैं तो उनके द्वारा निबद्ध-रचित अनेक ग्रंथों, व्याख्या, टिप्पण, न्यास आदि की जानकारी प्राप्त होती है, जो निम्न है -
प्रस्तुत आलेख में प्रभाचन्द्र के विषय में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है और यत्र-तत्र उनके कर्तत्व के विषय में चर्चा की गई है, उससे यह सुस्पष्ट है कि उन्होंने सर्वप्रथम 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' (12,000 श्लोकप्रमाण) ग्रंथ की रचना की। तत्पश्चात् उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र' की रचना की जो उनके वैदूष्य की धवल पताका की परिचायक है। प्रमेयकमलमार्तण्ड की अन्तिम प्रशस्ति में 'भोजदेवराज्ये' उल्लिखित है, जबकि न्यायकुमुदचन्द्र की पुष्पिका में 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' लिखित होने का अभिलेख मिलता है। धारा-नरेश भोजराज का समय लगभग 1010-1053 तथा जयसिंहदेव का राज्यकाल सन् 1065 के आस-पास का है।
ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने देवनन्दि पूज्यपाद (464-524) के द्वारा रचित व्याकरण ग्रंथ जैनेन्द्र महान्यास पर शब्दाम्भोज भास्कर नामक ग्रंथ जो अपूर्ण (लगभग साढ़े तीन अध्याय तक) बतलाया जाता है, की रचना की। इसके अतिरिक्त अमोघवर्ष राष्ट्रकूट-नरेश के राज्यकाल (814-877) में हुए शाकटायन . द्वारा रचित व्याकरण सम्बन्धी सूत्र-ग्रंथ पर 'शाकटायन-न्यास' नामक व्याख्या के रचनाकार के रूप में भी उनकी ख्याति दिग-दिगन्त व्यापी हुई। डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य के अनुसार प्रभाचन्द्र ने यापनीय संघाग्रणी शाकटायनाचार्य के 'केवलभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणों' की कतिपय कारिकाओं को पूर्वपक्ष के रूप में उद्धत किया है। अतः प्रभाचन्द्र का समय नवम शताब्दी से पूर्व मानना न्यायसंगत नहीं होगा।'
श्री प्रभाचन्द्र द्वारा एक प्रबन्ध लिखित होने का भी संकेत प्राप्त होता है जिसका उल्लेख न्यायकुमुदचन्द्र की प्रशस्ति में निम्न प्रकार से मिलता है -