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जैनविद्या 24
गुरुः श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः । नन्दताद् दुरितैकान्तरजा-जैन-मतार्णवः ।। श्री पद्मनन्दि सैद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः ।
प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयाद्रत्ननन्दि पदे रतः ।' 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' की इस प्रशस्ति में ग्रंथकर्ता प्रभाचन्द्र ने आदरभावपूर्वक अपने गुरुद्वय का स्मरण करते हुए उन्हें अनेक गुणों का आलय (भण्डार) बतलाया है और गुरु (माणिक्यनन्दि) के चरणों में रत रहते हुए उनके पद-पंकज प्रसाद से (अत्यन्त दुरूह) ग्रंथ की रचना की। ग्रंथ की प्रशस्ति का निम्न अंश यह भी ध्वनित करता है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रंथ की रचना श्री भोजदेव के राज्य में धारा नगरी-निवासी श्रीमत्प्रभाचन्द्र पण्डित के द्वारा की गई -
श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामार्जितामल पुण्यनिराकृतनिखिलमलकलंकेन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिल प्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति ।"
अर्थात् भोजदेव के राज्य में धारा निवासी परापर परमेष्ठि के चरणों में प्रणाम करके निर्मल पुण्यार्जन से सम्पूर्णमलरूप कलंक को धोनेवाले श्री मत्प्रभाचन्द्र पण्डित के द्वारा निखिल प्रमाण-प्रमेय के स्वरूप को प्रकाशित करनेवाले परीक्षामुख की यह टीका है।
- इससे श्री प्रभाचन्द्र द्वारा रचित वैदूष्यपूर्ण कृति का आभास सहज ही हो जाता है। इसके अतिरिक्त उनके विषय में जो भी विवरण प्राप्त होता है, जो उद्धरण मिलते हैं या विभिन्न साक्ष्य आदि उपलब्ध होते हैं उनसे यह स्पष्टरूप से ज्ञात होता है कि वे एक उच्चकोटि के विद्वान, तर्कबुद्धि से परिपूर्ण, विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न, अद्भुत क्षमतावाले ऐसे विख्यात मनीषी थे जो समस्त प्रकार के वाद-विवाद में अपने विरोधियों को परास्त करने की अदभुत क्षमता रखते थे। यही कारण है कि वे तर्क और न्याय शास्त्र के महासमुद्र में तैरकर प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र जैसे दुरूह ग्रंथों की रचना करने में समर्थ हुए। सामान्यतः तार्किक बुद्धि की विलक्षणता विद्वानों में सर्वत्र देखने को नहीं मिलती है। इनकी एक अद्भुत विशेषता यह है कि किसी भी विषय का प्रतिपादन,