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जैनविद्या 24
किया। प्रभाचन्द्र ने स्वयं को माणिक्यनन्दि के पदों में रत बतलाया है जिससे उनका साक्षात् शिष्यत्व स्वीकार किया। प्रभाचन्द्र ने स्वयं को माणिक्यनन्दि के पदों में रत बतलाया है जिससे उनका साक्षात् शिष्यत्व प्रकट होता है। अतः यह सम्भव है कि प्रभाचन्द्र ने जैन न्याय अध्ययन अपने द्वितीय गुरु माणिक्यनन्दि से किया हो। 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' ग्रंथ में प्रभाचन्द्र ने माणिक्यनन्दि को गुरु के रूप में स्मरण करते हुए उनके ही पदपंकज-प्रसाद से प्रमेयकमल मार्तण्ड की रचना करने का उल्लेख किया है। यह तथ्य 'प्रमेयकमल मार्तण्ड में किए गए मंगलाचरण से स्पष्ट है, जो निम्न है -
शास्त्रं रोमि वरमल्पतरावबोधो माणिक्यनन्दि पद पंकज सत्प्रसादात् । अर्थ न किं स्फुटयति प्रकृतं लघीयां -
ल्लोकस्य भानुकर विस्फरिताद् गवाक्षः।' प्रस्तुत मंगलाचरण में प्रभाचन्द्र द्वारा माणिक्यनन्दि (गुरु) के चरण-कमल के प्रसाद से शास्त्र-रचना करने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार से शिमोगा जिले के नगर तालुका का निम्न शिलालेख भी महत्वपूर्ण है जिसमें श्री माणिक्यनन्दि को 'जिनराज' बतलाकर उन्हें महिमामण्डित किया गया है -
माणिक्यनन्दी जिनराज वाणी प्राणाधिनाथः परवादिमर्दी। चित्र प्रभाचन्द्र इह क्षमायां मार्तण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपि ।'
अर्थात् माणिक्यनन्दि जिनराज की वाणी के प्राणनाथ (श्री मजिनेन्द्रदेव की वाणी पर अधिकार रखनेवाले), परवादियों (विरोधियों) के मतों का मर्दनखण्डन करनेवाले (वाद-विवाद में विरोधियों को परास्त करनेवाले) प्रभाचन्द्र थे। आश्चर्य है इस पृथ्वी पर मार्तण्ड (सूर्य) की वृद्धि में चन्द्रमा की प्रभा निरन्तर सन्नद्ध रही। प्रकाशान्तर से इसका अभिप्राय यह हुआ कि पण्डितप्रवर प्रभाचन्द्र ने प्रमेयरूपी कमलों को उद्भासित (विकसित) करनेवाले मार्तण्ड (सूर्य) का कार्य किया। अर्थात् उन्होंने 'प्रमेय- कमलमार्तण्ड' नामक ग्रंथ की रचना की।
__इसी क्रम में प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रशस्ति में उल्लिखित निम्न श्लोक द्वय उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा जिनमें प्रभाचन्द्र ने श्री माणिक्यनन्दि की गुरु-रूप में वन्दना करते हुए स्वयं को श्री पद्मनन्दि सैद्धान्त का शिष्य और रत्ननन्दि के चरण में रत सूचित किया है -