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जैनविद्या 24
प्रभाकर
विभिन्न दार्शनिकों के मत में प्रमाण-स्वरूप में, उसकी संख्या में, उसके विषय में और उसके फल में विप्रतिपत्ति पाई जाती है । इसी प्रसंग में परीक्षामुख और प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयरत्नालंकार, प्रमेयकण्ठिका आदि ग्रंथ रचे गये हैं । प्रमेयकमल मार्तण्ड उक्त प्रसंग को लेकर सबसे पहले रचा गया वृहत्काय ग्रंथ है। अन्य दार्शनिकों में नैयायिक कारकसाकल्य को प्रमाण मानते हैं, वैशेषिक सन्निकर्ष को, सांख्य इन्द्रिय-वृत्ति को, ( मीमांसा) ज्ञातृ - व्यापार को प्रमाण मानते हैं । बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं, शब्दाद्वैतवादी प्रमाण को न मानकर सारे विश्व को ही शब्दमय मानते हैं, चार्वाकवादी अभाव को ही प्रमाण मानते हैं । शून्यवादी, ब्रह्मवादी सम्पूर्ण विश्व को ब्रह्ममय मानते हैं। प्रभाकर ज्ञान और आत्मा दोनों को परोक्ष मानते हैं । इस भाँति जैसे प्रमाण के स्वरूप में विप्रतिपत्ति है उसी प्रकार इसकी संख्या, विषय और उसके फल में भी विवाद है। प्रस्तुत ग्रंथ में उक्त सारे विवादों का खण्डन करके स्याद्वाद शैली के आधार पर जैन न्याय का मण्डन किया गया है। ग्रंथ की शैली सुलभ संस्कृत है, टीका का जो आधार होना चाहिए उसी के अनुरूप टीका रची गई है। ऐसा नहीं है कि शब्द तो कठिन और उसकी टीका उससे भी कठिन । टीका का शब्द से भी अधिक कठिन होना अच्छा नहीं होता। यह इस प्रकार की नहीं है। टीका अत्यन्त सुगम, तर्क-सम्मत और खण्डन - मण्डनपरक है।
इस ग्रंथ का विषय जैन न्याय है । न्याय को पढ़े बिना वस्तु तत्त्व समझ में नहीं आ सकता । जैसे आत्मा को जानने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण काम में नहीं आता क्योंकि आत्मा अमूर्त है, मूर्त - इन्द्रियों का विषय नहीं है तब अनुमान प्रमाण का सहारा लेना होगा या आगम प्रमाण का सहारा लेना होगा । इस प्रकार वस्तु - तत्त्व को जानने के लिए परोक्ष प्रमाण में श्रुति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम को जानना आवश्यक है। प्रत्यक्ष में पारमार्थिक और सांव्यवहारिक प्रमाण को जानना आवश्यक है । उक्त ग्रंथ इन सब प्रमाणों को, उसके भेदों को और विषय और फल को पर्याप्त खण्डन-मण्डन के साथ सिद्ध करता है ।
2. न्यायकुमुदचन्द्र यह ग्रंथ न्यायरूपी कुमुदों (कमल-पुष्पों) को खिलाने में/के लिए चन्द्रमा है। इस विषय में आचार्य जयसेन ने आचार्य प्रभाचन्द्र की प्रशंसा में एक श्लोक लिखा है, उसमें कहा कि न्याय के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ आया करती हैं, उनको सुलझाने में, उनको स्पष्ट करने में यह ग्रंथ चन्द्रमा के समान है।
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3. तत्वार्थवृत्ति पद-विवरण इस ग्रंथ में आचार्य उमास्वामी - कृत 'तत्वार्थसूत्र' की आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित वृहत टीका 'सर्वार्थसिद्धि' पर आचार्य
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