Book Title: Jain Vidya 24
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 11
________________ जैनविद्या 24 पृथ्वी पर गिरती है तो उसकी छाया से पृथ्वी केसर की शोभा को धारण करती है। उनकी शोभा ऐसी जान पड़ती है मानो लक्ष्मी के धव अर्थात् पति ही हों। आगे की शेष पंक्तियों में आचार्य प्रभाचन्द्र को न्यायरूपी सरोवर के आभूषण बतलाते हुए उनको प्रातःकालीन सूर्य की उपमा देते हुए कहा है - पण्डित श्री प्रभाचन्द्र न्यायरूपी कमलों को खिलानेवाले सूर्य हैं। उनको ‘पण्डित' शब्द से सम्बोधित करने से उनका न्याय के विषय में परम पाण्डित्य प्रकट होता है। नीचे छन्द में कहा गया है कि आपके द्वारा चारों वेदों में निष्णात पण्डितों के वाद-विवाद हेतु आये शिष्यों को पराजित करने से जान पड़ता है कि आप रुद्र के समान वादीरूपी हाथियों पर अंकुश के समान हैं। कहने का तात्पर्य है कि आप वादियों पर विजय प्राप्त करनेवाले हैं। __धारा नगरी (जो आज मध्यप्रदेश में 'धार' के नाम से प्रसिद्ध है) में दसवीं शताब्दी में राजा भोज राज करते थे। वे तथा उनके उत्तराधिकारी स्वयं तो विद्वान थे ही, साथ ही विद्वानों का समादर भी खूब करते थे। इससे सिद्ध होता है कि प्रभाचन्द्र राजा भोज द्वारा सम्मानित भी थे और पूज्य भी थे। इनको ‘पण्डित' शब्द से सम्बोधित करने से इनका गृहस्थ होना सिद्ध होता है। इनका राज-दरबार में जाना, वाद-विवाद में भाग लेना, पण्डित कहलाना और इनका गृह-त्यागी तथा नग्न दिगम्बर होना परस्पर विरुद्ध लगता है। उनका धारा में ही रहना भी दिगम्बर साधु की दृष्टि से संभव नहीं प्रतीत होता है। क्योंकि दिगम्बर जैन साधु एक स्थान में रहकर वहाँ के निवासी नहीं कहला सकते। इस विषय में एक तर्क यह भी है कि इन्होंने अपना गुरु आचार्य माणिक्यनन्दि को स्वीकार किया है जो कि मुनि अवस्था के पूर्व धारा के निवासी सिद्ध हो चुके हैं। प्रभाचन्द्र ने स्वयं लिखा है - गुरुः श्री नन्दिमाणिक्यो नंदिताशेषसजनः । इससे सिद्ध है कि इनके गुरु माणिक्यनन्दि थे। किन्तु विद्या-गुरु थे। इन्होंने अपनी सारी रचनायें अपने गुरु के समक्ष रखीं और स्वीकृत कराई थीं। दीक्षा गुरु आपके शिक्षा-गुरु आचार्य माणिक्यनन्दि थे और दीक्षा-गुरु आचार्य ‘पद्मनन्दि सैद्धान्तिक' थे। अविद्धकरण पद्मनन्दि कौमारदेव आपके सधर्मा थे। आचार्य कुलभूषण भी इनके सधर्मा थे। समय आचार्य प्रभाचन्द्र का समय इनके गुरु आचार्य माणिक्यनन्दि से जाना जाता है। आचार्य माणिक्यनन्दि ने न्याय के विद्वान आचार्य अकलंक का स्मरण किया है,

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