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जैनविद्या 24
की व्याख्या में प्रायः सारा ग्रंथ समाहित है। ‘परीक्षामुख' के प्रथम सूत्र ‘स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम्' के आधार से ज्ञान को ही प्रमाण सिद्ध किया है।
भूतपूर्व प्राचार्य श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत कॉलेज
जयपुर
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__ प्रस्तुत परीक्षामुख ग्रंथ को पढ़ने और पढ़ानेवालों और इस पर उपाधियाँ प्राप्त . करनेवालों की संख्या बहुत हो सकती है। न्यायतीर्थ, शास्त्री और आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण विद्वान इसके अध्येता रह चुके हैं; बंगाल एसोसियेशन की न्यायतीर्थ परीक्षा में उत्तीर्ण विद्वान भी अनेक हैं। किन्तु किसी ने इनके ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद करने या करवाने की ओर ध्यान नहीं दिया। अंतरंग में चाहे इस ग्रंथ को पढ़नेवालों की जिज्ञासा भी इसके हिन्दी अनुवाद की रही होगी किन्तु किसी ने आगे आकर इसके अनुवाद का बीड़ा नहीं उठाया।
पूज्य आर्यिका गणिनी ज्ञानमतीजी माताजी की शिष्या जिनमतीजी ने गुरुदेव पण्डित चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ (भू.पू. प्राचार्य, श्री दिगम्बर जैन संस्कृत कॉलेज, जयपुर) से यह ग्रंथ पढ़ते समय निवेदन किया था कि - 'आप इस ग्रंथ की हिन्दी टीका लिखिए।' मैंने भी शास्त्री कक्षा में पढ़ते समय कहा था कि - 'इस ग्रंथ की हिन्दी टीका आप कर सकते हैं, अतः आपको यह उत्तम कार्य करना चाहिए। आप स्वयं यह ग्रंथ पढ़ाकर अनेक छात्र-छात्राओं को न्यायतीर्थ की डिग्रियाँ प्राप्त करा चुके हैं, आपके लिए यह कार्य आसान है,' किन्तु यह संभव नहीं हो पाया। आर्यिका जिनमतीजी ने अपनी शिक्षागुरु आर्यिका ज्ञानमतीजी तथा अनेक पंडितों के सहयोग से इस महान ग्रंथराज की टीका की है। माताजी संस्कृत-प्राकृत की अच्छी विदुषी हैं, न्याय के विषय का गूढ़ ज्ञान रखती हैं। ग्रंथ की समाप्ति किशनगढ़ (राजस्थान) में हुई। उन्होंने इस पर दो शब्द लिखने हेतु मुझको भी बुलाया था। मैंने अपने दो शब्द लिखकर अपने को धन्य माना। मैं पूज्या माताजी को कोटिशः धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ कि उन्होंने इस महान ग्रंथ की हिन्दी टीका की, जिसका अभी तक अभाव था।