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जनविद्या
तीन स्थितियां होती हैं-प्रथम उसका अन्तर्जगत् जहां भाव, मनोभाव, विचार, संस्कार आदि की प्रधानता रहती है, यही प्राधान्य उसके द्वारा कृत समस्त क्रिया-कलापों को ऊर्जा-शक्ति प्रदान करता है । दूसरा उसका बाह्य जगत् है जहां प्रकृति का अनंत विस्तार-वैभव है। इसी के योग-सहयोग से वह कल्पना-जल्पना का ताना-बाना बुना करता है तब उसके बीच नाना विम्ब स्थिर होते रहते हैं । अन्तर-बाह्य दोनों के मध्य वह स्वयं है, यही. वस्तुतः उसका तीसरा स्वरूप है । इन तीनों का समवाय किसी भी प्राणी के व्यक्तित्व के रूप को स्वरूप प्रदान करता है।
वातावरण व्यक्तित्व को विकसित करता है । कृत और प्राकृत दो मुख्य वातावरण हैं जो उसे बहुविध अनुप्राणित करते हैं—कृत में सभ्यता अथवा साहित्यमूलक वातावरण और जातीय स्वभावमूलक वातावरण अपनी मुख्य भूमिका का निर्वाह करते हैं, प्राकृत में स्वयं जात प्रवृत्ति-प्रभुता तथा प्राणी का व्यक्तिगत वातावरण सम्मिलित रहता है । “पर्सनलटी" नामक कृति में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पृष्ठ 99 पर स्पष्ट किया है--व्यक्तित्व पर सर्वाधिक प्रभाव डालनेवाला सभ्यतामूलक वातावरण है क्योंकि विचार और भावनात्रों का निर्माण, प्राचार और विहार का ज्ञान तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति का निर्माण मनुष्य इसी वातावरण से सीखता है।
उपादान और निमित्त दो मुख्य बल हैं जिनके सम्यक् सहयोग से किसी कार्यक्रम का सम्पादन हुमा करता है । कोई चाहे मात्र उपादान बल से किसी कर्म को कर ले अथवा मात्र निमित्त के बल से उसे सम्पादित कर ले तो यह किसी प्रकार सम्भव नहीं है । प्राणी का कर्मविधान इनके सम्मिलित सहयोग से प्रायः संचालित हुआ करता है। प्राणतत्त्व और पर्याय के समवाय से प्राणी का स्वभाव मुखर होता है । मानव स्वभाव के अनुसार उनकी जिज्ञासाओं की पूर्ति का दायित्व उस पर पाजाने से उसे अपने व्यक्तित्व को उसी प्रकार के साँचे में ढालना अनिवार्य हो जाता है । कविमनीषी महाकवि वीर का व्यक्तित्व विषयक संक्षिप्त विचार इसी आधार पर किया जा सकता है।
मालवा देश के अन्तर्गत 'गुलखेड' नामक ग्राम था जहां अपभ्रन्श के ख्यातिप्राप्त कवि देवदत्त और उनकी पत्नी श्रीमती सन्तु अथवा सुन्तुव के शुभ कर्मोदय से पुत्र ने जन्म लिया और कालान्तर में वे संज्ञायित हुए वीर, महाकवि वीर । इनका गोत्र-वंश लाड वागड था । इसका मूल विकास काष्ठासंघ से हुआ जैसा कि पट्टावलि भट्टारक सुरेन्द्रकीति में उल्लिखित है । यथा
काष्ठासंघो भुविख्यातो जानन्ति नसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रु तः क्षितौ ।। श्री नन्दितट संज्ञश्च माथुरो बागडाभिधः ।
लाडबाग इत्येते विख्याता क्षिति मण्डले ॥ कवि के तीन सुधी सहोदर थे । उनके शुभ नाम थे सीहल्ल, लक्षणांक तथा जसई । जंबूसामिचरिउ नामक कृति की प्रशस्ति में स्वयं कवि ने लिखा है