Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 85
________________ जैन विद्या 14. जल - उद्यान- क्रीड़ा । 15. जन्म-जन्मांतर की विचित्र श्रृंखला । 16. चंडमारी व्यंतरी कृत उपसर्ग वर्णन । 17. आकाश युद्ध वर्णन । 18. अन्तर्कथाओं का उलझाव । 19. तीर्थंकरों के आगमन पर असमय में ही प्रकृति का पुष्पित हो उठना । 79 जम्बूसामिचरिउ की मूलकथा को छोड़कर शेष कथानक रूढ़ियां अपभ्रंश के लगभग सभी चरितकाव्यों में उपलब्ध होती हैं । इन्हीं कथानक रूढ़ियों ने प्राचीन हिन्दी महाकाव्यों के विकास में भारी योगदान दिया है । अपभ्रंश चरितकाव्यों की ये सारी विशेषताएं हिन्दी पौराणिक अथवा रोमांचक काव्यों में बखूबी दिखाई देती हैं । पृथ्वीराज रासो, कीर्तिलता, ढोला-मारू रा दूहा श्रादि काव्यों में ये रूढ़ियाँ और स्पष्टवर होती गयी हैं । प्राचीन हिन्दी महाकाव्यों में कथानक रूढ़ियों को समझने के लिए हमें मध्यकाल में उतरना होगा । जैसा हम जानते हैं, सप्तम शताब्दी में साहित्य की धारा दो भागों में स्पष्टतः विभाजित हो गई थी । प्रथम धारा सामंती छाया लिये हुए थी जिसमें विद्वान् राजाश्रय पाकर संस्कृत-प्राकृत के आलंकारिक काव्यग्रन्थ लिख रहे थे और द्वितीय धारा ऐसी थी जिसमें कवि लोकाख्यानों का आधार लेकर धार्मिक काव्य की रचना कर रहे थे। दसवीं शताब्दी तक आते-आते यह प्रवृत्ति काफी अधिक लोकप्रिय हो गई और संस्कृत कवि भी लोकाश्रित कथाकाव्यों की शैली की ओर आकृष्ट हो गये । इस समय तक अपभ्रंश भाषा और साहित्य का भरपूर विकास हो चुका था। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में समान ' अधिकार रखनेवाले विद्वान् कवि ऐतिहासिक, पौराणिक और रोमांचक शैली में काव्य-सृजन करने लगे थे । इतिहास का पूर्वमध्यकाल तो अपभ्रंश भाषा और साहित्य के विकास के लिए स्वर्णयुग कहा जा सकता है । यह वस्तुत संक्रांतिकाल था जिसमें अपभ्रंश के साथ ही हिन्दी भाषा और साहित्य का उदय हुआ । इस समय की हिन्दी भाषा और साहित्य पर अपभ्रंश भाषा और साहित्य का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था । पीछे उल्लिखित शब्दसूची से यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाता है । डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रभिमत का उल्लेख करना इस संदर्भ में अप्रासंगिक न होगा जिसमें उन्होंने कहा है – “ वस्तुतः छन्द, काव्यरूप काव्यगत रूढ़ियों और वक्तव्य वस्तु की दृष्टि से दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का लोकभाषा का साहित्य परिनिष्ठित प्रपभ्रंश से प्राप्त साहित्य का ही बढ़ाव है । यद्यपि उसकी भाषा उक्त अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न है । " ( हिन्दी साहित्य- उद्भव और विकास, प्रथम संस्करण, 1952, q. 43) I हिन्दी साहित्य का आदिकाल तथा मध्यकाल यथार्थ में अधिक प्रभावित है | अपभ्रंश का चरितकाव्य अन्ततः पौराणिक पृथ्वीराज रासो, कीर्तिलता, ढोला-मारू रा दूहा, पद्मावत, अपभ्रंश साहित्य से बहुत कथाकाव्य ही है । हिन्दी के रामचरितमानस आदि काव्य इस

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