Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ जनविद्या 137 ॥10॥ रावण कहता है-हे त्रिया ! सुन । मेरा किया नहीं होता, संसार में क्या कोई बुद्धिमान् अशुभ कर्मों का अनुसरण करता है ? ॥7 ।। (मंदोदरी कहती है) हे मूर्ख रावण ! परस्त्री का हरण करके तूने जो किया वह देख, तूने तेज आग से अपने कई प्रकार के डाह लगा लिये। ॥8 ।। मंदोदरी कहती है-हे रावण ! उसी का फल चख । धतूरे का फल खाने से सबकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। ॥9॥ मंदोदरी कहती है-हे रावण ! तू उसी रस में भूल गया। धतूरे के रस के कारण युद्ध में पड़ कर सबका नाश करा दिया। हे रावण ! जैसा तूने किया वैसा कोई नहीं करता। सीता हरण के कारण लंका गई और परिजनों में निन्दा हुई । ॥11॥ हे रावण ! तू बहुत मद में भर गया था, हे मूर्ख, तेरे मन में बहुत गर्व था । तूने उचित अनुचित नहीं जाना, (अब) दुःख सहते समय जान । ॥ 12 ।। हे रावण ! तू यमराज द्वारा हरा दिया गया और तुझे नरक-प्रयाण दे दिया गया। एक परस्त्री के कारण न धन रहा न मित्र। ।। 13 ।। हे रावण ! परस्त्री का हरण करने के कारण तू आज भी नरक में है, मन में विचार कर देख-जो जैसा करता है वैसा भरता है ।। 14 ।। हे रावण ! मन में अच्छी तरह समझ ले कि तेरी यह अवस्था परस्त्री के . कारण ही है और कोई भूल नहीं है। ॥15॥ हे रावण ! तूने अशुभ बुद्धि को ग्रहण कर लिया। हे दशमुख ! तेरी बुद्धि नष्ट हो गई । तूने जागते हुए भी चोरों को घुसा लिया जिससे परिजनों और लंका का विनाश हो गया ॥16॥ सयाना रावण भी क्या करता ? दैव ने ही कुबुद्धि दे दी। अनेक सयाने भी यदि मिल जाय तो भी जो लिखा है वही होता है। ॥17 ।। रावण जिनधर्म में दृढ़ था, उसका सम्यक्त्व भी दृढ़ था । जो अशुभ कर्म का अनुसरण करता है उसका निश्चय ही विनाश होता है। ॥18 ।। रावण अपने किए हुए कर्मों का विचार कर मन में खिन्न हुआ। जैसे दूध में कांजी की बूद पड़ने पर उसे नष्ट होने से कौन रोक सकता है। ॥19 ।। रावण ने पछतावा किया कि दैव ने ही बुद्धि हरली थी (जो) मैंने बिना अपराध के ही परस्त्री का हरण किया और वंश का नाश करा दिया ॥20॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158