Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 151
________________ जैन विद्या 145 अरे जीव ! सुन, क्षमा बिना अनन्त दुर्जन मिल जाते हैं। सब पृथ्वी पर अपयश फैल जाता है, बड़े दुःख सहने पड़ते हैं। ॥61।। क्षमा शरीर का आभूषण है, संयम जिसका शृगार है, वह दुस्तर भवसागर को तैर जाता है, उसके लिए पार होने में रुकावट क्या है ? ॥62 ।। हे बुद्धिमान् ! क्षमा के समान कोई भी नहीं है, धन, परिजन और मित्र भी नहीं हैं, दुर्जन कोई भी अनुसरण नहीं करता, सज्जन अनन्त मिल जाते हैं। । 63।। भव्यजन मुझे क्षमा करना, बुधजन दोष मत देना, मुझ बुद्धिहीन ने इसे प्रकाशित किया है, पण्डित शुद्ध करलें। ।। 64 ।। जिन शासन के प्रकाश में नेमिप्रसाद द्वारा यह कहा गया है, सरस्वती ने सहायता दी है । कोई इसकी अनदेखी (उपेक्षा) मत करना। ॥65॥ - मैं नेमीश्वर का चरण-शरण हं और सरस्वती का दास हूं, मैंने अोणमचरित को प्रकाशित किया है, बुधजन हंसी मत करना । ॥66॥ जो भी मनुष्य इसको पढ़ते हैं, सुनते हैं, लिखते हैं, लिखवाकर देते हैं वे अनेक प्रकार के सुख भोगते हैं ऐसा जिनवर ने कहा है। ॥ 67 ।। इस प्रकार बुद्धिरसायण प्रोणमचरित्र दोहे समाप्त हुए । 1. लिपिकार ने (तूं) शब्द बढ़ा दिया ज्ञात होता है क्योंकि इससे छन्द में मात्राएँ बढ़ जाती हैं । इसके न रहने से अर्थ में कोई भेद नहीं पड़ता। 2. इस छन्द में भी 'धण' शब्द लिपिकार द्वारा ही बढ़ाया ज्ञात होता है क्योंकि इससे भी छन्द में मात्रा-वृद्धि होती है । 3. इसमें लिपिदोष से 'ह' अधिक लिखा गया है । 4. यहां भी लिपिकार ने 'धण' शब्द बढ़ा दिया है जिससे छन्द में मात्रा-वृद्धि हो गई है ।

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