Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या
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खमा विणा रे जीव सुणि, दुज्जण मिलहि अणंत । अपजसु पूरइ सयल महि, दुख सहंत महंत ॥61 ॥ खमा सरीरहं प्राभरण, संजमु जासु सिंगारु । (सो)15 भवसायरु दुत्तर तरइ, को वारं तहं पारु ॥62॥ खमा समो गवि कोवि (वुहा)16 वुह, णविषणु परियणु मित्त । दुज्जणु को वि रण अणुसरइ, सज्जण मिलहि अणंत ॥63 ॥
खमा करिज्जहु भवियजण, वुहजण दोसु म देहु ।। मई बुद्धिहीण पयासियो, पंडिय सुद्ध करेहु ॥64॥
मिपसाएं भासियो, सरसइ दियउ सहाइ । जिणसासणहं पयासिए मत को अणक्खु कराइ ॥65 ॥
मीसुर हउ पयसरणु, सरसइ । केरउ दासु । प्रोणमचरितु पयासियहो, बुधजण करहुं म हासि ॥66॥ पढतहं सुणतहं जे वि गर, लिहिवि लिहावइ देहि । ते सुह (भंजहिं)17 भुजहि विविहपरि, जिणवरु एम भइ ॥67॥
इति बुद्धिरसायण-प्रोणमचरित्त दोहडा
समाप्ता: ।।

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