Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 152
________________ 146 जैन विद्या 5. यहां भी कोष्ठक में लिखा 'तउ' शब्द अधिक है । 6. इस छन्द में स्पष्ट ही 'पा' अधिक लिपिकृत है । 7. इस छन्द में 'धण' शब्द रहने पर मात्रा-वृद्धि हो जाती है। 8. शुद्ध शब्द 'असुह' ही है । लिपिकार ने गलती से एक 'ह' अधिक लिख दिया है । 9-10. शुद्ध शब्द 'वुहा' न होकर 'वुह' ही ठीक ज्ञात होता है क्योंकि ये मन्दोदरी के वचन होने से रावण के प्रति पुल्लिग का ही प्रयोग संगत है । 11. दोहा 33 का चतुर्थ पद तथा 34वें दोहे का प्रथम एवं द्वितीय पद लिपिकार से लपि करते समय छूट गये हैं, ऐसा ज्ञात होता है । 12. लिपिकार ने 38 के पश्चात् दोहे की संख्या 40 ही लगाई है। 13. यहां 'वुह' शब्द ही अधिक उपयुक्त ज्ञात होता है । 14. छन्द में 'तसु' शब्द रहने से मात्रा-वृद्धि होती है। 15. 'सो' शब्द रहने से छन्द में मात्रा बढ़ती है । न रहने पर अर्थ में कोई हानि नहीं होती। 16. यहां भी 'वुहा' के स्थान में 'वुह' अधिक संगत ज्ञात होता है। 17. 'मंजहि' के स्थान में 'भुंजहि' सार्थक ज्ञात होता है ।

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