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जैनविद्या
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__ हे भव्यजनो ! धर्म को मत छोड़ो, जैनधर्म ही एकमात्र सार है, श्रावकजन्म बड़ा दुर्लभ है, यह बार-बार नहीं मिलता।
॥48 ।। जिस घर में शील का पालन नहीं होता उस घर की सुख-सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। जिनेन्द्र कहते हैं कि वह घर दुःख-दारिद्रय से भर जाता है। ।। 49 ।।
हे बुद्धिमान् ! नष्ट हुई सम्पत्ति मिल जाती है, बिछुड़े हुए परिजन भी पुनः मिल जाते हैं किन्तु चाहे कोई चक्री ही क्यों नहीं हो उसे छूटा हुआ जैनधर्म नहीं मिलता।
॥50॥ ___ हे जीव ! यह अच्छी तरह समझ ले कि आयु समाप्त होने पर जिनके शरीर में तेतीस करोड़ मनुष्यों का बल है ऐसों की शरण में भी यदि तू चला जायगा तो भी तुझे यम आकर पकड़ लेगा।
- हे बुद्धिमान् ! संसार में ऐसा कौन शक्तिशाली है जो यम का हाथ पकड़ ले, मरते हुए जीव को कौन रोक सकता है ? कौन उसे अपनी शरण में रख सकता
॥ 52 ॥ संसार भय में पड़े जीव को कौन निकाल सकता है ? जिनवर के समागम बिना कौन छुड़ा सकता है ? कौन हाथ पकड़ कर रास्ते पर लगा सकता है ।। 53 ।।
इस बलवान् संसार में जो अपनी रक्षा करता है उसके सब कर्मजन्य दुःख नष्ट हो जाते हैं । अन्य कौन जीव रक्षा करता है ?
॥ 54॥ 'पृथ्वी अथवा पहाड़ पर इस अनन्त संसार को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं हुआ, इसने ही सबको नष्ट कर दिया ऐसा कहते हुए जो सम्पूर्ण संसार को बिलसता है उसका संसार छुड़ाने पर भी नहीं छूटता, हे मूर्ख, तू ऐसा समझ ले और मन में किसी प्रकार का गर्व मत कर ।
।। 55-56 ।। ह मूर्ख ! ऐसा समझ कि मैंने इस संसार को नहीं भोगा, मुझे ही संसार ने भोग लिया । कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं हुआ है और न होगा जो (इसे भोगकर) अन्त में सुखी होता हो।
॥57॥ मैं ही सबसे बड़ा सुसम्मानित व्यक्ति हूं, मुझसे बड़ा कोई नहीं है। मैंने सुर, नर, हरि, हर और सारी पृथ्वी को भोग कर छोड़ दिया, 'मेरे समान अन्य कोई नारी नहीं है' ऐसा कहनेवाली सुलक्षणा नारी का मैं भर्तार हूं, मैंने दूसरों की तो गणना हो क्या ? सुर-असुरों पर भी शासन किया है ऐसा समझनेवाले हे बुद्धिमान् ! तू यह जान ले कि जिसके शरीर में क्षमा का वास है उसका दुर्जन भी क्या कर सकता है ? जिनेन्द्र देव ऐसा कहते हैं कि वह अनेक प्रकार के सुख भोगता है।
।। 58-60 ।।