Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 147
________________ जैनविद्या 141 हे बुद्धिमान् रावण ! तूने निरपराध सीता का हरण करके अनुचित कार्य किया, भूमण्डल के सब राजा बड़ी घिधिक् करते हैं। ॥35॥ हे बुद्धिमान् ! मुझे तेरे बल में भले ही शंका हो किन्तु अहंकार में शंका नहीं है । हे मूर्ख ! समझ ले कि यह मैत्री भाव का नाश करनेवाला है। ।। 36 ।। प्रतिज्ञा से चलायमान होकर पत्नी को निकाल दिया, सारी जवानी नष्ट कर दी, बिना किसी कारण के जिनमार्ग से वंचित हो गया। ॥37॥ जिस घर में जिनमार्ग नहीं होता वह बसा हुआ घर भी उजड़ जाता है, उस घर में बहुत दुःख और दारिद्रय आ जाता है, धन में भी आग लग जाती है। ॥ 38 ।। हे मूर्ख पुरुष ! समझ और बूझ, सम्पत्ति स्थिर नहीं रहती। वह दस-पांच दिन रहती है, फिर उठकर दूसरे के घर चली जाती है। ॥40॥ हे मूर्ख मनुष्य ! तू जान ले कि मन में किसी को भी गर्व नहीं करना चाहिए । होते हुए भी जो धर्म को छोड़ देता है उसके चले जाने पर पछताता है। ।।41 ॥ हे मूर्ख ! समझ, लक्ष्मी से क्या राग करना? जिनके घर हाथी थे वे नंगे पाँव घूमते हैं। ॥42 ॥ हे मूर्ख समझ, सम्पत्ति को क्यों ढोता है ? जिनधर्म के मध्य ही यह स्थिर रहती है नहीं तो जाती ही जाती है। ।।43॥ ... जो अपनी धन-सम्पत्ति जिनमार्ग में दान करता है उसी की धन-सम्पत्ति स्थिर रहती है, जन्मान्तर में भी स्थिर रहती है, उसी की संसार में यश और कीर्ति फैलती है। ।। 44॥ सम्पत्ति जीवों में बांटना (दान देना) चाहिए, दया बिना धर्म नहीं होता। पात्र को दिया दान ही जन्म को सुखदाई होता है । ॥45॥ शील के अभाव में सम्पत्ति चली जाती है, शील के बिना संयम नष्ट हो जाता है, हे जीव ! सुन, तूने संयम के बिना अशुभ कर्मों को ग्रहण कर लिया। ॥46॥ एक घड़ी के सुख के लिए तूने दुःखों को गिना ही नहीं। परधन परस्त्री में आसक्ति के कारण तू नरक में दुःख सह रहा है । ।। 47॥

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