Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जनविद्या
विणपराध सीय हरिय वुह, रावण कियउ अजुत्तु । महिमंडलिय जि चक्कयह, धिगु धिगु कहहिं महंतु ॥35॥
वलिए संकइ वलु विवहा, पा इम जाणहु रे मूढ़ नर, इह
ण संक अहंकार । मित्तिभाव विसारु ॥36॥
वर ते वहि वहि घणु कियो, तरुणे वहिउ समग्गु । जिरणवर मग्गहं वेचियउ, कारणि किसहु ण लग्गु ॥37॥
वसतहं उजडते वि घर, जिहं धरि जिणहं न मग्ग । तिहं धरि दुह दालिदु वहु, धणह वि लग्गिउ अग्गि ॥38॥
वज्झह दूझह मूढ णर, सम्पइ थिरु ण रहाई दिन दस पांच वसेरडउ, पुरिण उठि परधरि जाई
।। ॥40112
वुझहु रे तुहं मूढ णर, होते धम्मह वेचियइ,
मण गव्वयउ म कोइ । गए पछितावउ होइ ॥41 ॥
वज्झहु रे तुहं मूढ णर, लखमी गाग्गे पाग्गह ते गइय, हत्थी
रंजहु काई । जिणहं घराइ ॥42 ॥
बुज्झहु रे जिणधम्महं
तुहं मूढणर, संपइ संवहु वेची थिरु रहइ, रणातरु जाइय
काइ ।
जाइ ॥43 ॥
संपइ सुधणु सुथिरु रहइ, तसु जमंतर थिरु रहइ, जसु
जे जिणमग्गहं देइ । कीरति जगहं भमेइ ॥44 ।।
संपइ सत्तहं वाहिरए, दयाविणु धम्मु ण होइ । दाणु जु पत्तहं वाहिरए, जम्मु सुहमलो जाइ ॥45॥ संपइ गइय सु सत विणु, सस विणा गउ जम्मु । जम्म विणा रे जीव सुणि, गहियउ असुहं कम्मु ॥46॥
सुक्खु वि घडियक कारणहं, दुक्ख ण किपि गणेइ । परधण परितय रमिवि करि, णरयहं दुक्ख सहेइ ॥47॥

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