Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ 140 जनविद्या विणपराध सीय हरिय वुह, रावण कियउ अजुत्तु । महिमंडलिय जि चक्कयह, धिगु धिगु कहहिं महंतु ॥35॥ वलिए संकइ वलु विवहा, पा इम जाणहु रे मूढ़ नर, इह ण संक अहंकार । मित्तिभाव विसारु ॥36॥ वर ते वहि वहि घणु कियो, तरुणे वहिउ समग्गु । जिरणवर मग्गहं वेचियउ, कारणि किसहु ण लग्गु ॥37॥ वसतहं उजडते वि घर, जिहं धरि जिणहं न मग्ग । तिहं धरि दुह दालिदु वहु, धणह वि लग्गिउ अग्गि ॥38॥ वज्झह दूझह मूढ णर, सम्पइ थिरु ण रहाई दिन दस पांच वसेरडउ, पुरिण उठि परधरि जाई ।। ॥40112 वुझहु रे तुहं मूढ णर, होते धम्मह वेचियइ, मण गव्वयउ म कोइ । गए पछितावउ होइ ॥41 ॥ वज्झहु रे तुहं मूढ णर, लखमी गाग्गे पाग्गह ते गइय, हत्थी रंजहु काई । जिणहं घराइ ॥42 ॥ बुज्झहु रे जिणधम्महं तुहं मूढणर, संपइ संवहु वेची थिरु रहइ, रणातरु जाइय काइ । जाइ ॥43 ॥ संपइ सुधणु सुथिरु रहइ, तसु जमंतर थिरु रहइ, जसु जे जिणमग्गहं देइ । कीरति जगहं भमेइ ॥44 ।। संपइ सत्तहं वाहिरए, दयाविणु धम्मु ण होइ । दाणु जु पत्तहं वाहिरए, जम्मु सुहमलो जाइ ॥45॥ संपइ गइय सु सत विणु, सस विणा गउ जम्मु । जम्म विणा रे जीव सुणि, गहियउ असुहं कम्मु ॥46॥ सुक्खु वि घडियक कारणहं, दुक्ख ण किपि गणेइ । परधण परितय रमिवि करि, णरयहं दुक्ख सहेइ ॥47॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158