Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 141
________________ कवि नेमिप्रसाद बुद्धिरसायण-ओणमचरित-दोहड़ा __-पं. भंवरलाल पोल्याका रावण सीता का हरण करके मन में पछताने लगा। (मैरा) एक भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ, अन्त में अपयश रह गया। || 1॥ रावण सीता का हरण करके मन में अत्यन्त खिन्न हुमा। बिधाला ने जो अक्षर लिख दिये हैं उन्हें मिटाने में कौन समर्थ है ? ॥2॥ - मंदोदरी कहती है—हे रावण ! तू बात सुन । तू लंका और परिजनों का स्वामी था, तूने परस्त्री का हरण क्यों किया ? ।।3।। ___ मंदोदरी कहती है-हे रावण! तू बात सुन । जिसके कारण तू प्राज लंघन कर रहा है तूने उसकी नारी का हरण किया था। ॥4॥ __ मंदोदरी कहती है-हे रावण ! तू बात सुन । मैं कुल में कलंक लगने की बात नहीं कहती, पृथ्वी पर अपयश फैल रहा है। ॥5॥ रावण कहता है-हे त्रिया ! सुन । जो होनहार होता है वही होता है। संसार में ऐसा कौन बलवान् है जो देव का उल्लंघन करनेवाले को सहारा दे? . ।।6।।

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