Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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नविद्या
रावणु भणइं (तूं)1 सुणहि तिया, मेरउ कियउ ण होइ । असुह करम जइ अणुसरइ, जगहं सयारणउ कोइ ॥7॥ रावण परितय हरिय तुह, पेक्खु जु कियउ गवार । डझण लग्गउ विविहपरि, सई कढवि अंगार ॥8॥ रावण वह फल चक्खिए, मंदोवरि पभरणेइ ।। धत्तूरहं फल चक्खि करि, सयलहं बुद्धि हरेइ ॥9॥ रावण बहु रस भुल्लियो, मंदोवरि, पभणेइ । धत्तूरारस पिडि पडिग्रो, सव्वहं णासु करेइ ॥10॥ रावण जइसउ तइं कियो , अइसउ करइ ण कोइ । सीता हरतह लंक गय, (धरण), परियण भयउ विगोउ ॥11॥ रावणु वहु मदहं भरिमो, मणु गम्वियउ प्रयाणु । जुत्ताजुत्त ण जाणियो, दुख सहंता जाणि ॥12॥ रावण जम्मु सु हारियो, णरय पयाण दितु । एक्कहं परतिय कारणहं, णा धरण हुवउ ण मित्तु ॥13॥ रावण परतिय हरिवि करि, अजहं रणरय मझारि । जं किज्जइ तं पावियए, पेक्खहु मणहं विचारि ॥14॥ रावण एह प्रवत्थडी, पेक्खहु मणि अवलोइ । परतिय जाणहुँ एहु सुहु, अवरु म भुल्लउ कोइ ॥15॥ रावण (असुहहं)असुहं गहिउ वुहा, गट्ठी बुद्धि दसास । जागंतहं चोरहं मुसिनो, (धण) परियण लंक विणासु ॥16॥
रावण सयाणउ किंकरइ, दइयउ कुव्वुधि देइ । अरणेय सणइं जइ मिलई, जं लिहियउ तं होइ ॥17॥ रावण जिणवरु धम्मु दिद, सम्मत्तु वि दिदु जासु । असुह कम्मु जइ अणुसरइ, (तउ) णिव्वइ होइ विणास ॥18॥ रावणु मणहं विसूरियो, पेक्खु जो कम्मु करेइ । दुद्धहं कंजिउविंदु जिम, विणसत कवण धरेइ ॥19॥ रावण करि पछितावियत्रो, दइयउ बुद्धि हरेइ । विणपराध परतिय हरिय, वंसहं (पा) पारिणउ देइ ॥20॥

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