Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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कह मिपसाय
बुद्धिरसायण-ओणमचरित्त-दोहड़ा
रावण सीता हरिवि करि, लग्गउ मणि पछताण । कज्जु ण एक्कउ सिज्झियउ, अपज्जसु रहिउ णियाणि ॥1॥ रावण सीता हरिवि करि, मणहं विसूरि महत्थु । विहिणा लिहिय जि अक्खरहं, भंजण कवरण समत्थ ॥2॥ रावण णिसुहि वयण तुहं, मंदोवरि पभणेइ । पाई परियणु लंक तुहूं, परतिय काई हरेइ ॥३॥ रावण णिसुरहि वयणु तुहूं, मंदोयर पभणेइ ।.. जाको कारण लंघियइ, ताकी रणारि हरेइ ॥4॥ रावण णिसुहिं वयणु तुहुं, मंदोवरि पभणेइ । कुलहं कलंकुण उच्चरइ, अपजसु महि पसरेइ ॥5॥ रावण पभणइ सुहिं तिय, जो होणत्रं सो होइ । दयउ उलंघत को घरइ, जगहि बलियउ कोइ ॥6॥

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