Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 137
________________ अनुवादक की ओर से भारत में सर्वप्रिय रामकथा का प्रतिनायक "रावण" वैदिक एवं वैदिकेतर सम्प्रदायों के अनुसार निर्विवाद रूप से अपने समय का एक महान् योद्धा ही नहीं अपितु, महान्तम बुद्धिमान् व्यक्ति था। चारित्रिक दृष्टि से भी उसमें निरपराध सीता का हरण करने के अतिरिक्त अन्य कोई दोष नहीं था। जैन परम्परा के अनुसार इस एक दोष के कारण ही उसे नरक में जाना पड़ा नहीं तो वह अपने उज्ज्वल चरित्र के कारण ही जनों का भावी तीर्थकर है। इस ही परम्परा के अनुसार उसकी रानी मन्दोदरी जैन-दीक्षा धारण कर तपस्या के कारण स्वर्ग में जाकर देव रूप में उत्पन्न हुई। रचनाकार ने अपनी रचना को इस काल्पनिक भित्ति के आधार पर रचा है कि मंदोदरी ने देव पर्याय से आकर नरक में रावण के जीव को प्रतिबोधित किया है और उसे लक्ष्मी की अस्थिरता बताते हुए परस्त्रीहरण के पाप एवं गर्व करने का फल नरक बता कर उनसे विरत होने तथा जैनधर्म का महत्त्व बताते हुए क्षमा धारण करने को प्रेरित किया है। हमारी दृष्टि में अपने प्रकार का अनुमानतः यह पहला काव्य है । काव्य का नाम डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री नीमच ने अपनी 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियां' नामक पुस्तक (शोध-अध्ययन) के तृतीय अध्याय की अपभ्रंश के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची में पृष्ठ 222 के संख्या 173 पर 'बुद्धिरसायण दोहड़ा' नाम से आमेर शास्त्र भण्डार,

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