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जैनविद्या
का कथानक शिक्षाप्रद है । वह देव के स्थान में पुरुषार्थ को महत्ता प्रदान करती है, साथ ही इस तथ्य का प्रतिपादन भी करती है कि मनुष्य चाहे सम्यक्त्वी तथा ज्ञानी हो किन्तु यदि वह चरित्रभ्रष्ट है तो उसे रावण की भांति नरक में जाना पड़ता है। वह जीवन को धर्ममय बनाने की प्रेरणा देते हुए कहती है कि जहां धर्म नहीं होता वहां दुःखदारिद्रय का वास होता है।
अनुवाद साधारण पाठक के लिए भी बोधगम्य है। माशा है पूर्व की भांति ही पाठकों द्वारा इस रचना का भी स्वागत किया जायगा।
(प्रो०) प्रवीणचन्द्र जैन
सम्पादक